jayapur nagar nigam

– राकेश कुमार शर्मा

जयपुर। स्मार्ट सिटी जयपुर में सड़कों पर गंदगी नजर नहीं आएगी। 24 घंटे पानी मिलेगा। बिजली कभी गुल नहीं होगी। इंटरनेट सेवा का उपयोग शहरवासी फ्री में कर सकेंगे। ट्रैफिक जाम से निजात मिल जाएगी। ऐसे न जाने कितने प्रावधान स्मार्ट सिटी के मजमून में किए गए है। कब, कैसे और जयपुर के किस इलाके में होंगे? यह भविष्य बताएगा लेकिन, फिलहाल शहर की सबसे बड़ी समस्या गंदगी की है और इसे हल करने में जयपुर नगर निगम पूरी तरह विफल साबित हो रहा है। कर्मचारियों की संख्या कम है। जो है उन पर प्रशासन का कोई नियंत्रण नहीं है। सफाई के ठेकों और अस्थायी श्रमिक रखने में जमकर भ्रष्टाचार हो रहा है। शिकायतों पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही और अधिकारी-कर्मचारी तथा ठेकेदार बेखौफ होकर सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचा रहे हैं। जयपुर नगर निगम में घोटालों की लम्बी फेहरिस्त है और इनमें से एक घोटाला अस्थायी श्रीमिकों का है। कागजों में जितने बताए जाते है उसके 50 फीसदी भी काम पर नहीं है। बाकी 50 फीसदी की मजदूरी जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों, कर्मचारियों और ठेकेदारों की जेब में जा रही है।

हाल में जयपुर की पूर्व महापौर ज्योति खंडेलवाल ने इस बारे में सीबीआई को एक शिकायत भी है। इसमें इस घोटाले से सम्बन्धित दस्तावेज सौंपे है। बकौल ज्योति खंडेलवाल वे इस तरह की शिकायत करीब डेढ़ साल पहले भी दे चुकी हैं लेकिन, उस मामले में आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को की गई शिकायत पर कुछ हलचल हुई लेकिन, कार्रवाई के नाम पर केवल खानापूर्ति होकर रह गई। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि भ्रष्टाचार की जड़ें कहां तक फैली हुई है। स्थायी कर्मचारियों की कमी के चलते  जयपुर नगर निगम समेत प्रदेश की अधिकांश शहरी निकायों में सफाई और अतिक्रमण हटाने जैसे कामों में स्थायी मजदूरों को रखने की परिपाटी कई साल से चल रही है। इस व्यवस्था को बीट सिस्टम कहा जाता है। कुछ साल पहले तक तो बीट्स व्यवस्था केवल दीपावली-ईद जैसे मौकों पर शहर की सफाई व्यवस्था को बनाए रखने के लिए थी लेकिन, अब तो यह पूरे साल और नगर निगम की विभिन्न शाखाओं में है।

जयपुर नगर निगम की उद्यान शाखा, स्वास्थ्य शाखा, अतिक्रमण निरोधक शाखा, बिजली शाखा में करीब चार हजार बीट्स मंजूर है। इनका इंतजाम नगर निगम ठेकेदारों के माध्यम से रखता है। नगर निगम की विभिन्न शाखाओं में करीब चार हजार बीट्स है। यानि इतने मजदूर ठेकेदार के माध्यम से काम कर रहेे है। इनमें से तीन हजार नगर निगम की स्वास्थ्य शाखा में है और इनका काम सड़क पर झाडू लगाना, नालियां साफ करना आदि है। इनके काम की तस्दीक स्थानीय पार्षद, स्वास्थ्य निरीक्षक, स्वास्थ्य अधिकारी से होने के बाद ठेकेदार को भुगतान मिलता है। अन्य शाखाओं में काम करने वाली बीट्स की तस्दीक संंबंधित अधिकारी को करनी होती है।

यूं खेला जाता है खेल

ठेकेदार जितनी बीट्स का पैसा उठाता है उसके 50 फीसदी मजदूर भी काम पर नहीं रखता। फर्जी नाम से या एक ही व्यक्ति को एक से ज्यादा बीट्स में दिखा कर फर्जीवाड़ा किया जा रहा है। फर्जी बीट्स की मजदूरी स्थानीय जनप्रतिनिधि, स्वास्थ्य निरीक्षक, स्वास्थ्य अधिकारी, लेखा शाखा के अधिकारियों एवं कर्मचारियों तथा अन्य उच्च अधिकारियों तक बंटती है। इस तरह करीब 15 करोड़ का घोटाला हर साल हो रहा है। ये घोटाला तो केवल नगर निगम से संबंधित है। पीएफ और सर्विस टैक्स का घोटाला अलग है। पीएफ विभाग की जांच में करीब 25 करोड़ रूपए की बकाया नगर निगम मद में निकली है। इसी तरह करीब ढाई करोड़ रूपए ईएसआई विभाग ने बकाया निकाला है। संबंधित ठेकेदार फर्म को नगर निगम 12.36 फीसदी सर्विस टैक्स, 12 फीसदी पीएफ और 4.75 फीसदी ईएसआई और पांच फीसदी कन्टीवेन्सी चार्ज के साथ अस्थायी मजदूर की मजदूरी और फर्म के 10 फीसदी प्रोफिट मार्जिन का भुगतान करता है। ठेकेदार ये सभी पैसा नगर निगम से उठा लेते है लेकिन, सर्विस टैक्स, पीएफ आदि का पैसा जमा नहीं कराते। दरअसल इसके पीछे सीधा से बहाना लगाया जाता है कि ये मजदूर अस्थायी होते है और वे बदलते रहते है। जबकि हकीकत में अधिकांश मजदूर कई साल से नगर निगम में काम कर रहे है। इन मजदूरों की पहचान के लिए कोई सबूत नहीं बनाया जाता है। जबकि श्रम कानूनों के अनुसार इनका नियमानुसार पीएफ का खाता खुलना चाहिए। मजदूरी की भुगतान बैंक के खाते से होना चाहिए। सफाई जैसे जोखिम कामों में लगे होने के कारण ईएसआई की सुविधा भी मिलनी चाहिए।

सिस्टम भी हैं दोषी

इस भ्रष्टाचार के लिए नगर निगम का सिस्टम भी जिम्मेदार है। नगर निगम में बिल पास करने की प्रकिया बेहद पेचीगदी भरी है और इसका फायदा भ्रष्ट अधिकारी-कर्मचारी उठाते है। फाइलों पर ऑब्जेक्शन लगाकर उन्हें अटका दिया जाता है। यदि ठेकेदार इनकी सेवापूजा कर देता है तो फाइल एक ही दिन में पास होकर भुगतान भी हो जाता है। एसीबी की कार्रवाई में नगर निगम के कुछ कर्मचारी भ्रष्टाचार करते हुए ट्रेप भी हो चुके हैं। इसके बाद भी कोई सिस्टम जस का तस है। ऑनलाइन करने के दावे किए जाते है लेकिन, फाइल के ऑनलाइन सिस्टम में आने से पहले ही देन-लेन हो जाता है। यदि नहीं हो तो फाइल आगे नहीं बढ़ती। इसका फायदा ठेकेदार भी उठाते है। भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों को दी गई रकम की वसूली ठेकों में गड़बड़कर कर की जा रही है।

सफाई के अलग-अलग ठेकों का गणित

जयपुर शहर में सफाई व्यवस्था की जिम्मेदारी जयपुर नगर निगम की है। इसके लिए करीब चार हजार स्थायी सफाई कर्मचारी है। मानसून से पहले नालों, गलियों और मेनहोल की सफाई का ठेका अलग-अलग किया जाता है। कचरा उठाने का ठेका भी अलग होता है। जबकि शहर में गन्दी गलियों को साफ रखने के लिए कई करोड़ रूपए खर्च कर रसोई और बाथरूम का पानी सीवरलाइन से जोडऩे का काम कराया गया था। जिस फर्म ने ये काम कराया था उसे रखरखाव की भी जिम्मेदारी दी गई थी लेकिन, नगर निगम के अधिकारियों की मिलीभगत के कारण ये शर्त केवल कागजों तक ही सीमित रही। परकोटे में लोग गलियों में गन्दगी से परेशान है। इसकी शिकायत जब नगर निगम से की जाती है तो वे इनका रखरखाव ठेकेदार से संबंधित होने की बात कहकर पल्ला झाड़ लेते है।  इसी तरह हर साल नालों और मेनहोल की सफाई का काम होता है लेकिन, यह काम ऐसे वक्त कराया जाता है जब बारिश होती है। ऐसे में मलबा वापस नालों में चला जाता है और फर्जी तरीके से सत्यापन कर भुगतान उठा लिया जाता है। शहर में कई इलाके ऐसे है जहां स्थानीय लोगों ने अपने स्तर पर सफाई मजदूर रख रखे है। अजमेर रोड की विभिन्न कालोनियों में इस तरह की व्यवस्था लोगों ने कर रखी है। लेकिन नगर निगम ने वहां अपने कर्मचारी अथवा बीटस लगा रखी है। यानि केवल कागजों में ही काम हो रहा है। शास्त्रीनगर समेत कुछ इलाकों में श्रमदान कर लोग सफाई कर रहे है वहां भी ऐसा ही हाल है। शिकायत करने पर मजदूरी जाने का डर जयपुर नगर निगम में हो रहे भ्रष्टाचार के इस खेल में बीट्स सिस्टम से रखे मजदूरों का भी जमकर शोषण हो रहा है। अधिकांश मजदूरों को तीन-तीन महीने की मजदूरी बकाया है। ऐसे में वे काम बीच में छोड़कर भी नहीं जा सकते। दूसरे इन्हें निगम में स्थायी होने का ख्वाब ठेेकेदार तथा अन्य लोग दिखाते रहते है। इस उम्मीद में वे शोषण के बावजूद काम कर रहे है और ठेकेदारों के कहे अनुसार कागजों में साइन कर देते है और ठेकेदार की शिकायत नहीं करते। निगम के अधिकारी ठेकेदार के आदमी होने के आधार पर इन्हें टरका देते  है और ठेकेदार निगम से भुगतान नहीं मिलने के कारण बहाना बनता रहता है।

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