jaipur.आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी ने उपवास को अपना एक प्रमुख उपकरण बनाया था। हालांकि तब भी उसके राजनीतिक मायने ही थे, लेकिन उनके उपवास में धर्म और दर्शन का अद्भुत संगम था। उनके उलट मौजूदा दौर के नेताओं द्वारा हाल में जैसे उपवास किया गया वह उसकी मूल भावनाओं का मखौल उड़ाता हुआ दिखा। सियासी दलों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके अपने हितों की बलिवेदी पर कहीं हमारी परंपराएं भेंट न चढ़ जाएं.देश उपवासों के दौर से गुजर रहा है। ये उपवास घोषित तौर पर राजनेता कर रहे हैं, जो न तो धर्माचार्य हैं और न ही योग या आयुर्वेद के शिक्षक। इन उपवासों का जरा भी संबंध न तो किसी खास तिथि से है और न ही किसी पर्व या जयंती पर होने वाली

धार्मिक विधि से। इसके उलट खबर है कि राजनैतिक पार्टियां सामने वाले को ’पतित’ और खुद को ’पवित्र’ बताने के लिए उपवास करने का स्वांग रच रही है। यह भी अजीब विरोधाभास है कि इन उपवासों का संबंध पकौड़े तलने वाली पार्टी से भी है तो उपवास में छोले-भटूरों को भक्ष्य पदार्थ ठहराने वाले राजनैतिक दल से भी है। उपवासों का दौर कांग्रेस ने 09 अप्रेल को शुरू किया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पेपर लीक, पीएनबी घोटाले और एससी-एसटी एक्ट जैसे देशव्यापी मुद्दों पर महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पर उपवास किया। भाजपा ने पलटवार करते हुए इसी शैली में कांग्रेस को उपवास कर 12 अप्रेल को जवाब देना चाहा। सर्वथा अप्रत्याशित कदम उठाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा के सांसद और विधायकों समेत उपवास किया। ऐसा करते हुए वे देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री बन गए, जिन्होंने विपक्षी पार्टियों का विरोध जताने के लिए हताश होकर उपवास किया। मोदी का उपवास विपक्षी पार्टियों द्वारा संसदीय कामों में बाधा डालने के विरोध में था।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि कोई प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के अध्यक्ष और सारे सांसद-विधायकों के साथ उपवास पर बैठा। इस ऐतिहासिक घटना ने कई ऐसी अटकलों को जन्म दिया है जिनमें कहा जा रहा है कि क्या प्रधानमंत्री का अपनी क्षमताओं और राजनैतिक स्थिति पर नियंत्रण नहीं रह गया है? क्या अब से पहले विपक्षी पार्टियों ने संसदीय कामों में किसी भी सरकार का सहयोग किया है? क्या संसद के नहीं चलने का जिम्मेदार सिर्फ विपक्ष होता है?
उपवास एक धार्मिक क्रिया है, जिसका शाब्दिक अर्थ अपने इष्ट देवता की सन्निधि में रहना है। यह एक वैदिक पुरातन प्रक्रिया है, जिसका संबंध चार पुरुषार्थों में धर्म और मोक्ष से है। पर यह अर्थ और काम भी देता है। यह ऐसा सनातन अनुष्ठान है, जिसके नियम-कायदे हैं। धर्म विधि में व्रत और उपवास भारतीय संस्कृति के मूल में हैं। भारत में उद्भूत जैन-बौद्ध सिद्धांतों के आधार भी उपवास हैं। उपवास करने के दौरान जीवन और समय का समर्पण ईश्वर के लिए होता है। सारी क्रियाएं ईश्वर के लिए होती है। उपवास की फल प्राप्ति का आकार अपरिमित है। उसका कोई दायरा नहीं है। वह निस्सीम है। वह सदाचार का सबसे बड़ा प्रयोग है। रामायण के अनुसार श्रीराम ने 14 वर्षों तक व्रत-उपवास किया। ऋग्वेद का एक मंत्र प्रमाण है, जिसमें कहा है कि व्रत और उपवास मनुष्य को क्या नहीं दे सकते? उनके करने से मानव की सारी कामनाएं पूरी होती है। उपवास में प्रार्थना तथा चारित्रिक शुचिता प्रबल होती है। वह ईश्वरीय कार्य है। आत्मनिग्रह, मौन और इंद्रिय संयम की भावना उपवास के मूल में निहित है। यदि ये तीनों नही ंतो फिर किया गया उपवास छलावा है। दिखावा है।
महात्मा गांधी ने अध्यात्मिक ऊंचाई को जानकर उपवास की परंपरा शुरू की थी। गांधी ने व्रत-उपवास को ईश्वरीय बल के साथ ही देश की आजादी पाने का सशक्त साधन बनाया था। उनके उपवास का फैलाव बड़ा था। वह व्यष्टिगत न होकर पूरी समष्टि के लिए था। उसमें धर्म और दर्शन का मेल था। साथ ही, कर्मयोग के पुट का जुड़ाव भी। इसीलिए गांधीजी का किया उपवास किसी को नीचा दिखाने की बजाय समाज को ऊंचा उठाने वाला था। वह सत्याग्रह था। इसीलिए गांधी ने कहा था, ’सच्चे मन से किया गया उपवास अपना पुरस्कार खुद है।’
महात्मा गांधी का वह किस्सा प्रसिद्ध है जब उपवास को लेकर गांधीजी को एक चिट्ठी मिली थी। पत्र में लिखा था,‘अब तो उपवास करने की हवा-सी चल पड़ी है, जिसका दोष आपका ही है।’ गांधी ने इसका जवाब देते हुए ‘हरिजनबन्धु’ में 21 अप्रैल, 1946 को लिखा था कि ’अनशन में एक-दूसरे की नकल करने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। जिसके हृदय में बल नहीं वह उपवास हरगिज न करे। कोई व्यक्ति फल की आशा से भी वह उपवास न करे। जो फल की आशा रखकर उपवास करता है, वह अंततः हारता है। यदि वह हारता नहीं भी है, तब भी वह उपवास के आनन्द को तो खो ही बैठता है।’ गांधी ने यह भी कहा था कि ‘अहिंसा के पुजारी के शस्त्रागार में उपवास अंतिम हथियार है। जब इंसानी चतुराई काम नहीं करती, तो अहिंसा का पुजारी उपवास करता है।’ गांधी के लिए उपवास एक चैतन्य अस्त्र था, जिसका वे निष्ठा और श्रद्धा के साथ अहिंसा के साथ प्रयोग करते थे।
उपवास के मौजूदा राजनैतिक उभार ने उसके स्वरूप को बदल दिया है। अब उपवास साधन की बजाय खुद साध्य हो गया है। उपवास का अर्थ लोकतंत्र की मजबूती की जगह सत्ता में रहने तरीका रह गया है। यह दुखद आश्चर्य है कि वैदिक काल से चली आ रही उपवास की सनातन परंपरा का दोनों बड़े राजनैतिक दलों से मखौल उड़ाया है। राजनैतिक परिस्थितियां धर्म, परंपरा तथा संस्कृति पर भारी हो गई है। पक्ष तथा विपक्ष दोनों ने इस बात का जरा भी ख्याल नहीं रखा कि स्वार्थों की बलिवेदी पर परंपरा का बलिदान न हो। राज राज्य की स्थापना के दावे करने वाले रावण राज्य के शासन का प्रयोग कर रहे हैं। प्रतिशोध की भावना में भी अमर्यादित नहीं होना राम राज्य का शुरूआती लक्षण है। श्रेष्ठ मूल्यों की स्थापना के लिए उन मूल्यों की जरूरत नहीं है, जिनकी हम स्वयं ही निंदा करते हैं। उपवास की शाश्वत मर्यादा का उल्लंघन करके राजनैतिक पार्टियों ने महात्मा गांधी की अपेक्षा को ठेस पहुंचाई है।
उपवास की राजनीति में कुछ सवाल खड़े हो गए हैं। क्या उजले लिबास पहनकर चमचमाते कैमरों में फोटों खिंचवाते नेताओं का उपवास सच्चे अर्थों में कहीं से भी ठीक बैठता है? वर्ग संघर्ष के दावानली हालातों में क्या राजनैतिक उपवास शांति का जल डाल पाएगा? यदि इन सवालों के जवाब वाले ‘शुद्ध मन’ वाले राजनेताओं के पास हैं तो वे सही मायने में उपवास कर रहे हैं। पर यदि इनका समाधान सिर्फ सौदेबाजी है तो फिर ये उपवास आडंबर की पराकाष्ठा हैं। जिसके लिए गांधीजी ने लिखा था कि अनशन अहिंसा की पराकाष्ठा हो सकता है तो मूर्खता की भी।
उपवास की मौजूदा राजनीति से यही लगता है कि यह उपवास अहिंसा की नहीं बल्कि मूर्खता की पराकाष्ठा बनता जा रहा है। इसका धर्म और सभ्यता के साथ ही मौजूदा हालातों से कोई संबंध नहीं है। जिस तरह महात्मा गांधी और दीनदयाल उपाध्याय को मानने वाले उपवास की राजनीति के माध्यम से अपने को सही सिद्ध करने में लगे हैं, उसने गांधी और उपाध्याय के देश को मटियामेट करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी है।
- शास्त्री कोसलेंद्रदास
सहायक प्रोफेसर, राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर