मोदी सरकार योजना आयोग की तर्ज पर यूजीसी को बंद कर नया आयोग अस्तित्व में लाना चाहती है पर इससे क्या लाभ होगा,समझ से परे है! नया आयोग भी मौजूदा सरकारी सिस्टम में ही काम करेगा. जैसे यूजीसी में नियुक्तियां होती हैं वैसे ही नए प्राधिकरण में भी होंगी. फिर इस दावे में कितनी सच्चाई है कि नया प्राधिकरण पारदर्शी और प्रभावी ढंग से कार्य करेगा…..
–शास्त्री कोसलेंद्रदास
jaipur. मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने 27 जून की सुबह एक ट्वीट में जानकारी दी कि सरकार यूजीसी की जगह एक नए आयोग की स्थापना कर रही है. मंत्रालय ने ‘हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ़ इंडिया बिल 2018’ का मसौदा पेश किया है जो पारित होता है तो यूजीसी ख़त्म होगा. ‘राष्ट्रीय उच्च शिक्षा प्राधिकरण’ नाम वाले नए अधिनियम का मसौदा तैयार कर लिया गया है और मंत्रालय की वेबसाइट पर अपलोड भी कर दिया गया है. इस पर कोई भी व्यक्ति अपनी राय 20 जुलाई तक दे सकता है. ऐसे में यह एक बड़ा सवाल है कि क्या यूजीसी उच्च शिक्षा के पहरेदार की भूमिका ठीक तरह से अदा नहीं कर पा रहा है? क्या इसी वजह से सरकार इसे समाप्त करने जैसा कदम उठा रही है?
1946 में सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) का गठन हुआ. 65 साल पहले तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने 28 दिसम्बर, 1953 को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की औपचारिक नींव रखी. 1956 में संसद ने इस आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया. तब से यूजीसी विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम, शिक्षण-पद्धति, मूल्यांकन-प्रणाली, शिक्षक-कुलपतियों की नियुक्ति और योग्यताएं आदि तय कर रहा है. मगर अब उच्च शिक्षा की सबसे बड़ी नियामक संस्था यूजीसी अपने उद्देश्यों में विफल बताई जा रही है. मंत्रालय का मानना है कि इससे शिक्षा नियामक की भूमिका कम होगी, देश में उच्च शिक्षा के माहौल को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी. सभी के लिए सस्ती शिक्षा के मौक़े होंगे और शिक्षा संस्थाओं के प्रबंधन के मुद्दों में हस्तक्षेप कम होगा. वहीँ शिक्षाविदों का दावा है कि यह मसौदा शिक्षा का केंद्रीकरण करेगा. उच्च शिक्षा पर सरकारी हस्तक्षेप बढ़ेगा और निजी संस्थानों को ज़्यादा जगह देगा. यह मसौदा शैक्षणिक संस्थाओं और छात्रों के बीच दूरी भी बढ़ाएगा.
भारत में शिक्षा के बेहतर समन्वय और गुणवत्ता की परिकल्पना शुरू से रही है. इसे मजबूती देने के लिए शिक्षा की स्वायत्तता का इतिहास सदियों पुराना है. संस्कृत साहित्य के अमर कवि कालिदास का ‘अभिज्ञान-शाकुंतलम्’ शैक्षणिक केंद्रों की स्वायत्तता का एक पुराना दस्तावेज है, जहां महर्षि कण्व के कुलपतित्व वाले शिक्षण केंद्र में जाने से पहले महाराज दुष्यंत राजचिह्न त्यागकर गुरुकुल में प्रवेश करते हैं. पुरातन गुरुकुलों से लेकर आज तक विश्वविद्यालयों के प्रति हमारी ऐसी सजगता रही है, जिसमें सिर्फ शिक्षा महत्त्वपूर्ण हो राजनीति नहीं. अंग्रेजी हुकूमत के जमाने में भी उच्च शिक्षा को बेहतर और गुणवत्तापूर्ण बनाने के ठोस काम हुए.
गाहे-बगाहे एक बात कही जाती है कि जब तक यूजीसी है, उच्च शिक्षा मर नहीं सकती. यानी यूजीसी का होना ‘अनुदान’ के लिए जरूरी है. यह जरूरत ही सबसे बड़ी व्याधि बन चुकी है. इस अनुदान का मकसद तो नेक होता है लेकिन इसके खर्च में भ्रष्टाचार की खबरें सामने आना आम है. यही वजह है कि सरकार अकादमिक काम के अलावा वित्तीय मामले मंत्रालय के पास रखना चाह रही है. ऐसा नहीं है कि यूजीसी की प्रासंगिकता को लेकर ऐसी बहस पहली बार छिड़ी हो. पहले भी केंद्र सरकार यूजीसी की कार्यशैली में सुधार लाने के लिए तीन बार समितियों का गठन कर चुकी है. पहली समिति यूजीसी के अध्यक्ष रह चुके जाने-माने शिक्षाविद प्रोफेसर यशपाल के नेतृत्व में बनी. दूसरी समिति के अध्यक्ष सैम पित्रोदा थे. इन समितियों ने उच्च शिक्षा के नियामक यूजीसी के सुधार के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय को अनेक सुझाव दिए. मगर दोनों ही समितियों के प्रस्तावों को अमली जामा नहीं पहनाया जा सका. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि यूजीसी की कार्यशैली पर लगातार सवाल उठते रहे.
नरेंद्र मोदी सरकार ने 3 अगस्त, 2014 को यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. हरि प्रताप गौतम के नेतृत्व में चार सदस्यों की एक समिति बनाई. डॉ. सीएम जरीवाला, डॉ. कपिल कपूर और डॉ. आरपी सिसोदिया इसमें सदस्य थे. समिति ने 18 फरवरी, 2015 को अपनी विस्तृत रिपोर्ट मंत्रालय को सौंप दी. समिति ने क्या कुछ सलाह सरकार को दी, यह सार्वजनिक नहीं है मगर संकेत हैं कि समिति ने योजना आयोग की तरह यूजीसी के विघटन का प्रस्ताव देते हुए एक नए प्राधिकरण के गठन की सलाह दी है. समिति के इसी सुझाव पर अब केंद्र सरकार ने अमल करना शुरू कर दिया है. इस पर अब बहस छिड़ी है कि यूजीसी की उपयोगिता बची है या नहीं ? क्या इसे भंग करके नया निकाय बनाना ठीक होगा?
उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट विकट समस्या है. पर इसके लिए सिर्फ यूजीसी को दोषी ठहराना कहां तक सही है? क्या एक प्रतिष्ठित संस्था के कामकाज पर सवाल उठाना उचित है? अलबत्ता, आयोग में यदि खामियां हैं भी तो उन्हें दूरकर उसे प्रभावी और बेहतर संस्था बनाना चाहिए. इसके ढांचे में सुधार करना चाहिए. आर्थिक और प्रशासनिक तौर पर स्वायत्तता देनी चाहिए. पर हालात एकदम उलट हैं. यूजीसी चेयरमैन की नियुक्ति सरकार करती है. सचिव समेत दूसरे सदस्यों की नियुक्ति में सरकारी दखल है. सरकार जैसा चाहे वैसा मनमाना आदेश पास कर देती है, जिसका पालन यूजीसी को करना ही पड़ता है.
अपनी पीठ थपथपाने के लिए हर सरकार आइआइटी और आइआइएम जैसे उच्च शिक्षण संस्थान खोलने की घोषणा करती है. पर उनमें संसाधनों का अभाव जगजाहिर है. इन संस्थानों में प्रबंधन का काम सरकार का है, यूजीसी का नहीं. एक ओर सरकार विदेशी शिक्षण संस्थानों की बात करती है, वहीं शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए सेवा-सुविधा और वेतन-छात्रवृत्ति पर चुप्पी साध लेती है. बहरहाल, विफल होने का आरोप मढक़र यूजीसी को बंद करने की बजाय सरकार को उसमें सुधार को अहमियत देनी चाहिए. ऐसे में मोदी सरकार योजना आयोग की तर्ज पर यूजीसी को बंद कर नया आयोग अस्तित्व में लाना चाहती है तो इससे क्या लाभ होगा, यह समझ से परे है! नया आयोग भी मौजूदा सरकारी सिस्टम में ही काम करेगा. जैसे यूजीसी में नियुक्तियां होती हैं वैसे ही नए प्राधिकरण में भी होंगी. फिर इस दावे में कितनी सच्चाई है कि नया प्राधिकरण पारदर्शी और प्रभावी ढंग से कार्य करेगा. यह शर्मनाक है कि उच्च शिक्षा में गुणवत्तापूर्ण सुधार के लिए जिन बिंदुओं पर ध्यान होना चाहिए, उनके प्रति सरकार पूरी तरह से उदासीन है.
यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर यशपाल ने यूजीसी के विघटन का जमकर विरोध किया. उनका मानना था कि तकनीकी और मेडिकल शिक्षा को यूजीसी से अलग रखना ठीक फैसला नहीं हुआ. ऐसा नहीं है कि यूजीसी ने उच्च शिक्षा के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया. आज भारत में उच्च शिक्षा का जो ढांचा खड़ा हो पाया है, वह यूजीसी की वजह से ही है. तकनीकी शिक्षा, जो मौजूदा समय में एआईसीटीई के अधीन है और मेडिकल शिक्षा, जो मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के अधीन है, उन्हें भी यूजीसी के अधीन ही लाया जाना चाहिए. वहीं, राजस्थान विश्वविद्यालय शिक्षक संघ यानी रूटा के अध्यक्ष डॉ. जयंत सिंह का मानना है कि हम यूजीसी की कार्यशैली में सुधार लाए जाने की हिमायत करते हैं मगर इसके विघटन का विरोध करते हैं.
सरकार का यह कहना विचारणीय हो सकता है कि यूजीसी की जगह ऐसी संस्था की जरूरत है जहां विचार विमर्श के जरिए उच्च शिक्षा को और बेहतर बनाया जा सके. सब्सिडी वाली जमीन और अन्य छूट देने के अलावा सरकारी धन के जरिये वित्तीय पोषण बंद करने का समय है. ऐसे में यूजीसी को खत्म कर राष्ट्रीय उच्च शिक्षा प्राधिकरण स्थापित करना सरकार का अच्छा विचार हो सकता है. पर यह जिस कीमत पर हो रहा है वह एक प्रतिष्ठित ऐतिहासिक संस्था का नाम बदलने के ज्यादा कुछ नहीं है.
शास्त्री कोसलेंद्रदास
असिस्टेंट प्रोफेसर-दर्शन शास्त्र
राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर
मो. 9214316999