जयपुर। आदि शंकराचार्य (788 ईसवी – 820 ईसवी) का जन्म दक्षिण-भारत के केरल राज्य के कालडी़ ग्राम में हुआ था। केरल की पुण्यभूमि पर एक से एक महान मनीषियों, संतो, तपस्वियों ने जन्म लेकर मानव मात्र को सद्जीवन जीने के लिए प्रेरित किया है। वेदोक्त सनातन, शाश्वत जीवन दर्शन एवं धर्म के आचार्यों में भगवान श्री आद्य शंकराचार्य का स्थान निश्चित रूप से सर्वोपरि है। उनके द्वारा प्रदत्त उदार जीवनदर्शन एवं उनके द्वारा किए गए अथक प्रयासों से, विविध विघटित संप्रदायों को सत्य के एक सूत्र में पिरोया गया था। शंकराचार्यजी को हम भगवान के अवतार की तरह इसलिए स्वीकार करते है, क्योंकि, जो महान कार्य उन्होंने अत्यंत अल्पायु में किए-वो एक साधारण मानव के लिए असंभव प्रतीत होते है। ये अद्वैत वेदान्त के प्रणेता, संस्कृत के विद्वान, उपनिषद व्याख्याता और हिन्दू धर्म प्रचारक थे। हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार इनको भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। इन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और इनके जीवन का अधिक भाग उत्तर भारत में बीता। चार पीठों (मठ) की स्थापना करना इनका मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य रहा जो आज भी मौजूद है। भारत की पवित्र भूमि पर सनातन धर्म का अद्वैतवाद का प्रचार यानि आत्मा और परमात्मा की एक ही है, प्राचीन काल से ही था। किंतु कालान्तर में जब भारत में बौद्ध और जैन धर्म के प्रसार और हिन्दू कर्मकांडों में आई विकृतियों के विरोध के कारण सनातन धर्म अपनी पहचान खोने लगा। इस के चलते हिंदू धर्म में भी वेदों के ज्ञान को नकारा जाने लगा। सनातन धर्म के अस्तित्व पर आए संकटकाल में ही आदि शंकराचार्य संकटमोचक के रुप में अवतरित हुए। वैशाख शुक्ल पंचमी यानि मई के शुभ दिन ही ऐसे ही कर्मयोगी आदि शंकराचार्य का आविर्भाव यानि जन्म दिवस मनाया जाता है।
आदि शंकराचार्य ने अल्पायु में ही अपने अलौकिक वैदिक ज्ञान और वेदान्त दर्शन से बौद्ध, मीमांसा, सांख्य और चार्वाक अनुयायियों कीवेद विरोधी भावनाओं को सफल नहीं होने दिया। आदि शंकराचार्य ने ज्ञान मार्ग के द्वारा ही न केवल बौद्ध धर्म और अन्य संप्रदायों के विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर वेद धर्म का मान बढ़ाया बल्कि उन धर्म और संप्रदायों के अनुयायियों ने भी वैदिक दर्शन को स्वीकार कर लिया। ऐसा कर उन्होंने हिन्दू धर्म का पुर्नजागरण के साथ ही सनातन धर्म और वेदों को फिर से स्थापित और प्रतिष्ठित करने में अहम योगदान दिया। यही कारण है शंकराचार्य प्राचीन अद्वैतमत के प्रवर्तक कहलाए और उनके वैदिक दर्शन और अद्वैत मत शाङ्कर दर्शन या शाङ्कर मत कहलाया।
आदि शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन के अनुसार ब्रह्म और जीव या आत्त्मा और परमात्मा एकरुप हैं। किंतु ज्ञान के अभाव में ही दोनों अलग-अलग दिखाई देते हैं। आदि शंकराचार्य ने परमात्मा के साकार और निराकार दोनों ही रुपों को मान्यता दी। उन्होनें सगुण धारा की मूर्तिपूजा और निरगुण धारा के ईश्वर दर्शन की अपने ज्ञान और तर्क के माध्यम से सार्थकता सिद्ध की। इस प्रकार सनातन धर्म के संरक्षण के प्रयासों को देखकर ही जनसामान्य ने उनको भगवान शंकर का ही अवतार माना। यही कारण है कि उनके नाम के साथ भगवान शब्द जोड़ा गया और वह भगवान आदि शंकराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।
आदि शंकराचार्य वेदों के परम विद्वान थे, प्रखर भविष्यदृष्टा थे। उन्होंने सनातन धर्म की अपने ज्ञान से तत्कालिन समय में ही रक्षा नहीं की वरन सनातन धर्म और वेदों का अस्तित्व और प्रतिष्ठा अनंत काल तक बनाए रखने की दृष्टि के साथ अपने जीवनकाल में ही जगह-जगह घूमकर वेदान्त दर्शन का प्रचार-प्रसार किया । इसी उद्देश्य से उन्होंने देश की चारों दिशाओं में चार धाम, चार पीठ, बारह ज्योर्तिंलिंगों और अखाड़ों की स्थापना की। इनके व्यापक प्रभाव से बाद में अनेक संप्रदाय और पंथ स्थापित हुए। उनके द्वारा इन सब देवस्थानों और धर्म पीठों के स्थानों का चयन उनकी अद्भूत दूरदर्शिता का प्रमाण है। जहां बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ ज्योर्तिंलिंग हिमालय पर्वत की श्रृंखलाओं में हैं, वहीं शेष सागर के तटों पर अन्य तीन दिशाओं में हैं। इस प्रकार आदि शंकराचार्य ने पूरे देश को सदियों पूर्व ही एक धर्म सूत्र में बांध दिया था, जो आज भी कायम है।
आदि शंकराचार्य की विद्वानता के कारण ही कहा जाता है कि उनकी जीभ पर माता सरस्वती का वास था। यही कारण है कि अपने ३२ वर्ष के संपूर्ण जीवनकाल में ही आदि शंकराचार्य ने अनेक महान धर्म ग्रंथ रच दिये। जो उनकी अलौकिक प्रतिभा को साबित करते हैं। आदि शंकराचार्य कर्मयोगी, वेदों की प्रति गहन विचारशीलता, ईश्वरीय प्रेम, त्याग, पाण्डित्य से भरे अद़्भुत गुणों की मूर्ति थे। आदि शंकराचार्य ने प्रखर ज्ञान और बुद्धि बल से ही आठ वर्ष की उम्र में चारों वेद और वेदांगों का ज्ञान प्राप्त किया। 12 वर्ष की उम्र में हिन्दू धर्म शास्त्रों की गूढ़ता में दक्ष बने और 16 वर्ष की अल्पायु में ब्रह्मसूत्र पर भाष्य रच दिया। यही कारण है कि आज भी हर सनातन धर्मावलंबी आदि शंकराचार्य को स्मरण कर स्वयं को धन्य मानता है। साथ ही उनके द्वारा स्थापित वैदिक धर्म का अनुसरण और पालन करते हैं।
-काशी में मिला ज्ञान
अद्वैत वेदांत के प्रणोता आद्य शंकराचार्य ने दुनिया को ज्ञान दिया, इसकी अजस्त्र धारा उनमें देवाधिदेव की नगरी काशी में ही फूटी। काशी विश्वनाथ के दरस परस के निमित्त महादेव की नगरी में आगमन की राह से इसकी शुरुआत हुई। दो घटनाक्रमों से देश को दिशा देने वाली इन महाविभूति का प्राकट्य हुआ। इसका बड़ा स्रोत बनीं महामाया लीला जिन्होंने सत्य से उनका साक्षात्कार कराया। अद्वैत ब्रह्मवादी आचार्य शंकर केवल निर्विशेष ब्रह्म को सत्य मानते थे। ब्रह्म मुहूर्त में शिष्यों संग स्नान के लिए मणिकर्णिका घाट जाते आचार्य का राह में बैठी विलाप करती युवती से सामना हुआ। युवती मृत पति का सिर गोद में लिए बैठी करुण क्रंदन कर रही थी। शिष्यों ने उससे शव हटाकर आचार्य शंकर को रास्ता देने का आग्रह किया। दुखित युवती के अनसुना करने पर आचार्य ने खुद विनम्र अनुरोध किया। इस पर युवती के शब्द थे कि हे संन्यासी, आप मुझसे बार-बार शव हटाने को कह रहे हैं। इसकी बजाय आप इस शव को ही हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते। आचार्य ने दुखी युवती की पीड़ा को महसूस करते हुए कहा कि देवी! आप शोक में शायद यह भी भूल गई हैं कि शव में स्वयं हटने की शक्ति नहीं होती। स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- महात्मन् आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता। एक सामान्य महिला के ऐसे गंभीर, ज्ञानमय व रहस्यपूर्ण शब्द सुनकर आचार्य वहीं बैठ गए। समाधि लग गई और अंत:चक्षु में उन्होंने देखा कि सर्वत्र आद्याशक्ति महामाया लीला विलाप कर रही हैं। उनका हृदय अविवर्चनीय आनंद से भर गया। मुख से मातृ वंदना की शब्द धारा फूट चली। इसके साथ आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद, निगरुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार भक्ति धाराएं एक साथ हिलोरें लेने लगीं। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है वही द्वैत भूमि पर सगुण साकार रूप हैं। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुंचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन धरती पर उन्होंने यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है।
-वेदोक्त ज्ञान का प्रसार
वेद वे प्रामाणिक ग्रंथ हैं जो जीवन की जटि़ल पहेली का हमें प्रामाणिक उत्तर प्रदान करते हैं। परम्परा अनुसार वेदों का ज्ञान सदैव किसी श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ से ही प्राप्त करना चाहिए। विश्वभर में जहाँ भी किसी सामाजिक क्रांति का आविर्भाव हुआ है, वहाँ सत्य को ही उद्घाटित कर प्रचलित मोह को समाप्त किया गया था। आचार्य शंकर के समय भी इस जटि़ल जीवन की पहेली को न बूझ पाने का कारण दो प्रकार की अतियाँ विशेष रूप से प्रचलित हो गई थी, जिनको भगवत्पाद ने अपने ज्ञान के प्रकाश से दूर कर एक अत्यंत दूरगामी सामाजिक क्रांति का शुभारम्भ किया था। एक तरफ वेदों में आस्था रखने वाले वेदों के समग्र ज्ञान से अनभिज्ञ होने के कारण कर्मकांड को ही मोक्ष प्रतिपादक भाग समझ बैठे थे, तो दूसरी तरफ कर्मकांड का उचित स्थान तथा प्रयोजन न जानने के कारण एवं कर्मकांड से प्रचलित कुछ कुरीितयों के कारण बौद्धों ने प्रतिक्रिया स्वरूप वेदों का ही खंडन करना प्रारंभ कर दिया था। ये दोनों अतियाँ त्याज्य थी,जिन्हें भगवत्पाद ने अपने दिव्य ज्ञान के प्रकाश से इन्हें दूर कर वेदोक्त दिव्य ज्ञान की सुगंध पूरे देश में फैला दी थी। आचार्य शंकर का अपना कोई पृथक् दर्शन नहीं था, वे तो वेद का ही वास्तविक रहस्य उद्घाटित कर वेदों की प्रामाणिकता एवं मर्यादा की पुनःस्थापना करने के प्रति समर्पित थे। उनका जीवन ऐसे लोगों को पुनर्विचार के लिए पे्ररित करता है जो थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त कर उस ज्ञान को अपने नाम से जोड़कर अपने संप्रदाय बनाने में ज्यादा इच्छुक होते हैं। वेदों का संदेश जीवन में ‘एकमेव अद्वितीय’ दिव्य सत्ता का संदेश है। अतः उनका हेतु किसी दर्शन का खंडन करना मात्र नहीं था और न ही वे किसी अन्य दर्शन के प्रतिस्पर्धी की तरह खड़े हुए। उन्होंने समस्त दर्शनों का जीवन के इस परम लक्ष्य ‘अद्वैत साक्षात्कार’ में स्थान बताया और एक समन्वित दृष्टिकोण प्रदान किया। उनके समस्त भाष्य, काव्य, स्तोत्र या अन्यान्य रचनाओं में एक अद्भुत समन्वय दिखाई पड़ता है। ये समस्त रचनाएँ न केवल उनके सर्वात्मभाव को उद्घाटित करती है, बल्कि एक पूर्ण विकसित मानव का हमारे समक्ष जीवंत दृष्टान्त प्रस्तुत करती हैं।
-आचार्य का संदेश
प्रत्येक मनुष्य का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह शाश्वत,दिव्य, कालातीत सत्ता को अपनीआत्मा की तरह से जानकर मोक्षानंद का पान करें। इस अन्तः जागृति के लिए केवल ज्ञान मात्र कीअपेक्षा होती है, लेकिन ईश्वर से ऐक्य का ज्ञान तभी संभव होता है जब ईश्वर के प्रति प्रगाढभक्ति-भाव विद्यमान हो। ऐसी भक्ति एकदेशीय न होकरसार्वकालिक होनी चाहिए, अतः भक्त के प्रत्येक कर्म उत्साह से युक्त, निष्काम एवं सुंदर होने अवश्यंभावी है। इस तरह से समस्त ज्ञान, भक्ति एवं कर्म प्रधान साधनाओं का सुंदर समन्वय हो जाता है। जो भी मनुष्य ऐसी दृष्टि का आश्रय लेता है वह अपने धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष रूपी समस्त पुरुषार्थो की सिद्धि कर परम कल्याण को प्राप्त होता है।
-आज भगवत्पाद की पुनः आवश्यकता
आचार्य शंकर के आगमन के समय देश जिन विकट परिस्थितियों के दौर से गुजर रहा था वही समस्याएँ आज भी नज़र आती हैं। धर्म के नाम पर संप्रदाय विघटित होते जा रहे हैं। भिन्न-भिन्न मतावलम्बी अपने-अपने संप्रदायों के प्रति आस्था रखे हुए अपनी अलग पहचान बनाने के लिए आतुर है। धर्म के नाम पर सत्य की खोज एवं उसमें जागृति गौण हो गई है, तथा अन्य प्रयोजन प्रधान हो गए हैं। आज जहाँ एक तरफ विज्ञान एवं उन्नत प्रोद्यौगिकी लोगों की दूरी को कम कर रही है, वहीं दूसरी तरफ धर्म के नाम पर कट्टरता मनुष्यों के बीच के फासले एवं विद्वेष बढ़ाती जा रही है। आत्मीयता-स्वरूप जो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की दृष्टि प्राप्त होनी चाहिए, उसके बजाए विपरीतपरिणामदेखें जा रहे हैं। सत्य की खोज के नाम पर तो ऐसासम्भव नहीं। ऐसी विषम परिस्थितियों में हमें भगवान आदि शंकराचार्य के अद्भुत, उदात्त, समन्वयात्मक एवं सत्यपरक संदेश की पुनः अत्यंत आवश्यकता है। आज उनके द्वारा प्रदत्त संदेश को जनमानस तक पहुँचाने की अत्यंत आवश्यकता है।
Swami Vishwatamanand Sarswati enter Shankaracharya hill at Srinagar on April 30 Shankarajayanti, He came offered the prayers and gave the message of a strong and Peaceful Bharat.
https://youtu.be/FI_QJbro-Rk