-गांधी जयंती
-सुधीरेन्द्र शर्मा
गंदगी और बीमारी के खिलाफ भारत के निर्णायक युद्ध को ‘स्वच्छता ही सेवा’ अभियान से जोरदार बढ़ावा मिला है जो स्वच्छता की साझा जिम्मेदारी के बारे में हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। देश में पहले से चलाए जा रहे ‘स्वच्छ भारत मिशन’ को और असरदार बनाने की इस मुहिम में जनता का आह्वान किया गया है कि वे साफ-सफाई को उन ‘दूसरे’ लोगों की जिम्मेदारी न समझें जो ‘हमारे’ इस दायित्व को ऐतिहासिक रूप से खुद निभाते आए हैं।
महात्मा गांधी के घुमंतु जीवन में ऐसे अनगिनत अवसर आए जिनसे स्वच्छता और सेवा का संबंध स्पष्ट रूप से सामने आ जाता है और तब गांधीजी अपने आप को ‘हरएक को खुद का सफाईकर्मी होना चाहिए’ के आदर्श के जीते-जागते उदाहरण के रूप में पेश करते हैं। इस बात के बारे में आश्वस्त हो जाने पर कि वह ‘किसी को भी गंदे पांव अपने मस्तिष्क से होकर गुजरने नहीं देंगे’ गांधी जी ने झाड़ू को जीवन भर मजबूती से अपने हाथों में थामे रखा और ‘सफाईकर्मी की तरह’ अपनी सेवाएं उपलब्ध कराने का कोई अवसर नहीं गंवाया।
अफ्रीका में फीनिक्स से भारत में सेवाग्राम तक गांधीजी के आश्रम इस बात का जीता-जागता उदाहरण रहा कि स्वच्छता के लिए सेवा करने का क्या मतलब है। साफ-सफाई उनके लिए दिखावे के लिए की जाने वाली कोई गतिविधि न होकर सेवा का एक महान कार्य था जिसमें सभी आश्रमवासी रोजाना हिस्सा लेते थे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रपिता के लिए स्वच्छता का कार्य एक ऐसा सामाजिक हथियार था जिसका उपयोग वह साफ-सफाई में बाधा डालने वाली जाति और वर्ग की बाधाओं को दूर करने में करते थे और यह आज तक प्रासंगिक बना हुआ है।
लेकिन यह बात हैरान करने वाली है कि महात्मा गांधी ने आजादी हासिल करने के अपने अहिंसक आंदोलन की समूची अवधि के दौरान किस तरह स्वच्छता के अपने संदेश को जीवंत बनाए रखा। नोआखाली नरसंहार के बाद अहिंसा के अपने विचार और व्यवहार की अग्निपरीक्षा की घड़ी में गांधीजी ने अपने इस संदेश को जन-जन तक पहुंचाने का कोई अवसर नहीं गंवाया कि स्वच्छता और अहिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
एक दिन नोआखाली के गड़बड़ी वाले इलाकों में अपने शांति अभियान के दौरान उन्होंने पाया कि कच्ची सड़क पर कूड़ा और गंदगी इसलिए फैला दी गयी है ताकि वह हिंसाग्रस्त इलाके के लोगों तक शांति का संदेश न पहुंचा पाएं। गांधी जी इससे जरा भी विचलित नहीं हुए और उन्होंने इसे उस कार्य करने का एक सुनहरा अवसर माना जो सिर्फ वही कर सकते थे। आस-पास की झाडि़यों की टहनियों से झाड़ू बनाकर शांति और अहिंसा के इस दूत ने अपने विरोधियों की गली की सफाई की और हिंसा को ओर भड़कने से रोक दिया।
उनके लिए ‘स्वस्थ्य तन, स्वस्थ मन’ की कहावत में कोई मूर्त अभिव्यक्ति अंतर्निहित नहीं थी, बल्कि इसमें एक गहरा दार्शनिक संदेश छिपा हुआ था। क्या कोई ऐसा व्यक्ति अपने मन में अहिंसक विचारों को प्रश्रय दे सकता है जिसके कृत्य दूसरे प्राणियों या प्रकृति के प्रति हिंसक होंॽ वह स्वच्छता को स्वतंत्रता के अपने राजनीतिक आंदोलन का अभिन्न अंग मानते थे और नि:संदेह वह स्वच्छता की कमी को हिंसक कृत्य के समान मानते थे। सचमुच, स्वच्छता की कमी से देश में आज भी लाखों बच्चे मौत की नींद सो जाते हैं और यह भी एक तरह की हिंसा ही है।
कोई आश्चर्य नहीं कि स्वच्छता की कमी एक अदृश्य हत्यारे की तरह है। गांधी जी को गंदगी में हिंसा का सबसे घृणित रूप छिपा हुआ दिखता था। इसलिए वह सामाजिक-राजनीतिक, दोनों ही तरह की स्वतंत्रता के मार्ग में स्वच्छता और अहिंसा सहयात्री की तरह मानते थे। गांधीजी पश्चिम में स्वच्छता के सुचिंतित नियमों को देख चुके थे इसलिए वह इन्हें अपने और अपने करोड़ों अनुयायियों के जीवन में अपनाने का लोभ संवरण नहीं कर पाए।हालांकि इसके लिए उन्होंने जो कार्य शुरू किया उसमें से ज्यादातर अब भी अधूरे ही हैं।
‘‘वर्षों पहले मैंने जाना कि शौचालय भी उतना ही साफ-सुथरा होना चाहिए जितना कि ड्राइंग रूम’’।अपनी जानकारी को ऊंचे स्तर पर ले जाते हुए गांधीजी ने अपने शौचालय को (वर्धा में सेवाग्राम के अपने आश्रम में) शब्दश: पूजास्थल की तरह बनाया क्योंकि उनके लिए स्वच्छता दिव्यता के समान थी। शौचालय को इतना महत्व देकर ही जनता को इसके महत्व के बारे में समझाया जा सकता है। इस पर अमल के लिए हमें गंदगी में रहने के बारे में अपनी उस धारणा में बदलाव लाना होगा जिसके तहत हम स्वच्छता को आम बात न मानकर एक अपवाद अधिक मानते हैं।
देश को 2 अक्तूबर 2019 तक खुले में शौच से मुक्ति दिलाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य उसी दिशा में उठाया गया पहला कदम है। देश भर में 5 करोड़ से ज्यादा घरों में से हर एक में शौचालय का निर्माण करने का वादा एक चुनौती भरा लक्ष्य है, लेकिन ‘शौचालय आंदोलन’ को ऐसे ‘सामाजिक आंदोलन’ में बदलना, जिसमें शौचालयों का उपयोग आम बात बन जाए, तभी संभव है जब हम गांधी जी के जीवन से सबक लें। अन्य बातों के अलावा हमें शौचालयों की सफाई करने और सीवेज के गड्ढों को खाली करने के बारे में गांव के लोगों की अनिच्छा जैसी सामाजिक-सांस्कृतिक वर्जना को दूर करना होगा।
कोई भी इस समस्या की गंभीरता का अनुमान उस तरह से नहीं लगा सकता जिस तरह गांधीजी ने खुद इसका आकलन किया था। एक बार जब कस्तूरबा गांधी ने शौचालय साफ करने और गंदगी का डब्बा उठाने में घृणा महसूस की थी तो गांधीजी ने उन्हें झिड़की दी थी कि अगर वह सफाई कर्मी का कार्य नहीं करना चाहतीं तो उन्हें घर छोड़कर चला जाना चाहिए। कई तरह से स्वच्छता उनके लिए अहिंसा की तरह, या शायद इससे भी ऊंची चीज थी।
गांधी जी के जीवन के इस छोटे-से मगर महत्वपूर्ण प्रकरण में एक बहुमूल्य संदेश निहित है।अपने बाकी जीवन में इस पर अमल करते हुए कस्तूरबा ने अनजाने में ही ‘स्वच्छता ही व्यवहार है’ का परिचय दे दिया। अगले साल स्वच्छता अभियान के लिए यह प्रेरक संदेश हो सकता है। आखिर यही तो वह व्यवहार-परिवर्तन है जिसके संदेश को स्वच्छ भारत मिशन के जरिए करोड़ों लोगों के मन में बैठाने का प्रयास किया जा रहा है।
-डॉ. सुधीरेन्द्र शर्मा स्वतंत्र लेखक, अनुसंधानकर्ता और शिक्षाविद हैं। इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं।