– राकेश कुमार शर्मा
जयपुर। जयपुर राजपरिवार के कछवाहा वंश की आराध्य देवी रही शिला माता आजादी के बाद जयपुरवासियों की प्रमुख शक्तिपीठ है। मंदिर की बड़ी महिमा है और चमत्कारिक भी। कहा जाता है कि आम्बेर रियासत (जयपुर स्थापना से पहले आम्बेर कहलाती थी रियासत)के प्रतापी शासक राजा मानसिंह प्रथम पर असीम कृपा रही। शिला माता के आशीर्वाद से ही मुगल शासक अकबर के प्रधान सेनापति रहते हुए राजा मानसिंह ने अस्सी से अधिक लड़ाईयों में विजय हासिल की। तभी से जयपुर राजवंश के शासकों ने माता को ही शासक मानकर राज्य किया। आमेर महल परिसर में स्थित शिला माता मंदिर में आजादी से पहले तक सिर्फ राजपरिवार के सदस्य और प्रमुख सामंत-जागीरदार ही शिला माता के दर्शन कर पाते थे, वहीं अब रोजाना सैकड़ों भक्त माता के दर्शन करते हैं। चैत्र व अश्विन नवरात्र में तो माता के दर्शनों के लिए लम्बी कतारें लगती हैं और छठ के दिन मेला भरता है। जयपुर के प्राचीन प्रमुख मंदिरों में शुमार इस शक्तिपीठ की प्रतिस्थापना पन्द्रहवीं शताब्दी में तत्कालीन आम्बेर के शासक राजा मानसिंह प्रथम ने की। मंदिर का मुख्य द्वार चांदी का बना हुआ है। इस पर नवदुर्गा शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री उत्कीर्ण है। दस महाविद्याओं के रूप में काली, तारा, षोडशी, भुनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुर, भैंरवी, धूमावती, बगुलामुखी, मातंगी और कमला चित्रित है। दरवाजे के ऊपर लाल पत्थर की गणेशजी की मूर्ति प्रतिष्ठित है। द्वार के सामने चांदी का नगाड़ा रखा हुआ है। प्रवेश द्वार के पास दायीं ओर महालक्ष्मी एवं बायीं ओर महाकाली के चित्र उत्कीर्ण है।
शिला रुप में मिली तो कहलाई शिला देवी
कहा जाता है कि शिला माता की प्रतिमा एक शिला के रुप में मिली थी। 1580 ईस्वी में इस शिला को आम्बेर के शासक राजा मानसिंह प्रथम बंगाल के जसोर राज्य पर जीत के बाद वहां से इसे लेकर आम्बेर लेकर आए थे। यहां के प्रमुख शिल्प कलाकारों से महिषासुर मर्दन करती माता के रुप में उत्कीर्ण करवाया। इस बारे में जयपुर में एक कहावत भी बहुत प्रचलन में है, सांगानेर को सांगो बाबो जैपुर को हनुमान, आमेर की शिला देवी लायो राजा मान। इतिहास में शिला देवी प्रतिमा को लाने के संबंध में कई मत चलन में है, लेकिन इतिहासकारों की नजर में तीन मत ज्यादा ही प्रचलित है। एक मत यह है कि लड़ाई में हारने पर जसोर राज्य के राजा केदार ने अपनी पुत्री का विवाह राजा मानसिंह से किया था और दहेज में माता की प्रतिमा दी थी। दूसरा मत यह है कि राजा मानसिंह ने बंगाल के अधिकांश प्रांतों पर विजय हासिल कर ली, लेकिन राजा केदार को हरा नहीं पाए। जब राजा ने कैसे जीत मिले, इस बारे में पता किया तो यह सामने आया कि राजा के महल में काली माता का मंदिर है और माता के आशीर्वाद से कोई भी शत्रु राजा को युद्ध में हरा नहीं सकता। इस पर राजा मानसिंह ने माता को प्रसन्न करने के लिए पूजा की। माता ने प्रसन्न होकर स्वप्न में दर्शन दिए, जिसमें अपने साथ ले चलने व अपनी राजधानी में मंदिर बनाने की बात कही। राजा ने वचन देकर राजा केदार के राज्य पर हमला करके उसे पराजित कर दिया। तीसरा मत यह भी है कि राजा केदार को माता का यह वचन था कि जब तक वह राजी होकर माता को जाने के लिए नहीं कहेगा, तब तक देवी उसके राज्य में ही रहेगी। राजा मानसिंह की पूजा से पूजा से प्रसन्न होकर देवी राजा केदार की पुत्री का रूप धर कर पूजा कक्ष में उसके पास बैठ गई। पूजा में विध्न नहीं पड़े, इसलिए राजा ने उसे अपनी पुत्री समझ कर तीन बार कहा, जा बेटा यहां से चली जा मुझे पूजा करने दे। इस प्रकार माता ने राजा के मुंह से अपने पास से जाने की बात कहलवा दी। कहा जाता है कि जब राजा को इस बात का पता चला तो उन्होंने माता की प्रतिमा को समुद्र में फेंक दिया। बाद में राजा मानसिंह ने माता की प्रतिमा को शिला के रूप में समुन्द्र में से निकाल लिया। शिला के रूप में मिलने से देवी शिला माता के नाम से विख्यात हुई और आमेर महल में भव्य मंदिर बनाकर प्रतिस्थापित करवाया। शिलादेवी मन्दिर में दर्शन के बाद बीच में भैरव मन्दिर बना हुआ है। जहां माता के दर्शन के बाद भक्त भैरव दर्शन करते हैं। मान्यता है कि माता के दर्शन तभी सफल माने जाते हैं, जब वह भैरव दर्शन करके नीचे उतरता है। कहा जाता है कि वध करने पर भैरव ने अन्तिम इच्छा में माता से वरदान मांगा था कि आपके दर्शनों के बाद मेरे दर्शन भी भक्त करें। माता ने उसे आशीर्वाद देकर उसकी इच्छा को पूर्ण किया था।
रहस्यमयी व चमत्कारिक है
माता शिलादेवी को चमत्कारिक के साथ रहस्यमयी भी माना जाता है। लोगों और इतिहास में कई तरह की बातें है। इसमें से एक यह काफी प्रचलन में है कि 1727 ईस्वी में आम्बेर को छोड़कर कछवाहा राजवंश ने अपनी राजधानी जयपुर को बनाया तो माता ने रुष्ट होकर अपनी दृष्टि टेढ़ी कर ली। वहीं एक मत यह भी है कि राजा मानसिंह् से स्वप्न में माता ने मंदिर स्थापना के बाद रोज एक नर बलि का भी वचन लिया था। राजा मानसिंह ने इस वचन को निभाया की, लेकिन बाद के शासक इसे निभा नहीं पाए और नर के बजाय पशु बलि देने लगे। इससे भी नाराज होकर शिला देवी की दृष्टि टेढ़ी होने की कही जाती है। हालांकि इतिहासकारों का एक मत यह भी है कि शिलादेवी की प्रतिमा पहले पूर्वाभिमुख थी। महाराजा सवाई जयसिंह के जयपुर नगर की स्थापना किए जाने पर निर्माण में व्यवधान होने लगे। तब तांत्रिकों से पूछा गया तो बताया गया कि शिलामाता की जयपुर की तरफ तिरछी दृष्टि पड़ रही थी। तांत्रिकों व पण्डि़तों ने सवाई जयसिंह को राय दी कि शिलामाता को उत्तराभिमुख प्रतिष्ठित करवाने से ही जयपुर शहर का निर्माण संभव हो सकेगा। उसे सवाई जयसिंह ने प्रतिमा को वर्तमान गर्भगृह में उत्तराभिमुख प्रतिष्ठित करवाया। वहीं कुछ का यह भी मानना है कि प्रारंभ से ही मूर्ति की बनावट ऐसी है, जिसमें माता का मुंह कुछ टेढ़ा नजर आता है।
हिंगलाज संग शिलादेवी
मंदिर में विराजित शिला माता महिषासुर मर्दिनी के रुप में प्रतिष्ठित है। मूर्ति वस्त्रों और पुष्पों से आच्छादित रहती है। माता का मुख और हाथ ही दिखाई देते हैं। महिषासुरमर्दिनी के रुप में शिला देवी महिषासुर को एक पैर से दबाकर दाहिने हाथ के त्रिशूल मार रही है। इस मूर्ति के ऊपरी भाग में बाएं से दाएं तक अपने वाहनो पर आरुढ गणेश, ब्रह्मा, शिव, विष्णु व कार्तिकेय की मूर्तियां उत्कीर्ण है। शिलादेवी की दाहिनी भुजाओं में खडग, चक्र, त्रिशूल, तीर तथा बाई भुजाओं में ढाल, अभयमुद्रा, मुण्ड और धनुष उत्कीर्ण है। खास बात यह है कि यहां हिंगलाज माता की भी मूर्ति है। जो कम ही भक्तों को पता है। शिलादेवी के साथ मां हिंगलाज भी उतनी ही पूजित है, जितनी माता शिलादेवी। शिलादेवी के बाई ओर अष्टधातु की हिंगलाज माता की स्थानक मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस मूर्ति को आम्बेर में कछवाहा राजाओं से पूर्व वहां शासन करने वाले मीणा राजाओं के अफगानिस्तान के ब्लूचिस्तान से लाए जाने की कही जाती है। दायीं ओर गणेश जी की स्थानक मुद्रा में मूर्ति प्रतिष्ठित है। स्फटिक का शिवलिंग शिलादेवी के मंदिर में रखा हुआ है। इसके पीछे यंत्र रखा हुआ है। मंदिर के सामने के कक्ष में नवरात्रों में नवरात्र स्थापन किया जाता है। सुबह छह बजे भोग लगने के बाद ही मंदिर के पट खुलते हैं। भक्त गुंजी व नारियल का प्रसाद चढ़ाते हैं। वर्ष दो बार चेत्र और आश्विन के नवरात्र में यह मेला भरता है। नवरात्र में विशेष श्रृंगार किया जाता है। पन्द्रहवीं शताब्दी से आज तक मंदिर में बंगाली ब्राह्मण परिवार सेवा-पूजा करता आ रहा है और इनके परिवार आमेर में ही निवास करते आ रहे हैं। एक पूरी कॉलोनी पुजारी परिवारों व उनके रिश्तेदारों की है।
बहुत ही महत्त्वपूर्ण जानकारी
आपका आभार