जयपुर. लोकसभा चुनावों के परिणामों में राजस्थान ने राजनीतिक समीकरणों की पुरानी घिसी-पिटी परिभाषा को बदल कर रख दिया है। साथ ही कई मिथकों को भी तोड़ दिया है। भविष्य के लिए इन नतीजों में काफी कुछ छुपा है। कांग्रेस गठबंधन खुश है- क्योंकि 25 में से 11 सीटें जीती हैं। इससे भी बढ़कर इसलिए कि देश में भी इंडिया गठबंधन ने करीब 200 सीटें हासिल की हैं। भाजपा में भारी चिंता हैं, क्योंकि सबसे सुरक्षित राजस्थान से 11 सीटें उसने गंवा दी हैं। देश में भी सीटें कम हुई हैं। पिछली 2 बार से भाजपा को यहां पूरी सीटें मिलती आ रही थीं। 2019 में तो कांग्रेस की सरकार के बावजूद भाजपा सभी 25 सीटें जीत गई थी। राजस्थान में भाजपा ने 11 सीटें गंवा दीं, इसका कारण क्या? मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से राजस्थान के नतीजे बिल्कुल अलग कैसे? चुनाव की शुरुआत से ही भाजपा के नेता से लेकर कार्यकर्ता ओवर कॉन्फिडेंस में रहे। राजस्थान को भाजपा का गढ़ होने का मिथक पाल लिया। स्थानीय मुद्दे बजाय राष्ट्रीय मुद्दों के भरोसे रहे। यहां की जातिगत खांटी राजनीति को समझ कर सुलझाने वाला कोई नेता नहीं था। इससे परंपरागत राजनीतिक समीकरण बिगड़ गए। 1 मार्च को भाजपा की लोकसभा प्रत्याशियों की पहली सूची आने के साथ जाट-राजपूत विवाद की जातिगत कहानी शुरू हो गई। लगातार चुनाव जीत रहे चूरू सांसद राहुल कस्वां का टिकट काटना भाजपा के लिए ‘कोढ़ में खाज’ बना। इसके बाद अलग-अलग इलाकों में पूरा चुनाव जाति केंद्रित हो गया। इस बात को समझकर डैमेज कंट्रोल करने वाला नेता भी पार्टी में नहीं था। बल्कि जीत के अति विश्वास में इस आग को और भड़का दिया। इस कारण कई सीटें भी हारे। जाट-राजपूत विवाद न सिर्फ चूरू बल्कि पूरे राजस्थान में फैल गया। उधर, किराेड़ी मीणा काे कैबिनेट में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं मिलने से अपमान का मुद्दा भी पूर्वी राजस्थान में हावी रहा। भाजपा अधिक प्रयोग नहीं कर पाई। जो प्रयाेग किए वो गलत साबित हुए। इसके उलट कांग्रेस ने पूरे कॉन्फिडेंस से चुनाव लड़ा।

लीडरशिप नहीं : राजस्थान में पूरे चुनाव का नेतृत्व मुख्यमंत्री भजनलाल ने किया। इनके अलावा कोई नेता प्रदेश में सक्रिय नहीं था। भजनलाल का भी पूरे प्रदेश का राजनीतिक कुल जमा अनुभव पांच महीने का है। वे पहली बार के विधायक हैं और उसके बाद सीधे मुख्यमंत्री। कैबिनेट में कोई ऐसा मंत्री नहीं है, जिसकी प्रदेश स्तर पर पहचान हो। भाजपा के ज्यादातर नेता अपने इलाकों में फंसे थे। भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी खुद चुनाव लड़ रहे थे तो पूर्व नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ अपने इलाके में फंसे थे। वहां भी हार का मुंह देखना पड़ा। पहले दो चुनावों में ऐसा नहीं था। मोदी लहर के साथ पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा की लीडरशिप में चुनाव लड़े गए थे। इस चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पूरी तरह साइड लाइन थीं। झालावाड़ के अलावा वे कहीं सक्रिय नजर नहीं आईं। भाजपा में अनुभवी नेतृत्व की कमी बड़े हार का कारण बनी। इसके उलट कांग्रेस ने तमाम मतभेदाें को ग्राउंड पर हावी नहीं होने दिया और मिलकर चुनाव लड़ा। सर्वसम्मति नहीं होने के बावजूद गठबंधन को तीन सीटें दीं और तीनों जीतीं। मोदी के चेहरे पर अतिनिर्भरता से नुकसान: भाजपा चुनाव में कैंडिटेट को लेकर कोई प्रयोग नहीं कर पाई थी, जबकि कांग्रेस ने सभी 22 चेहरे बदल दिए। तीन सीटें गठबंधन उम्मीदवारों को दीं। भाजपा के चेहरे बदलने के प्रयोग उल्टे साबित हुए। कोई गठबंधन नहीं किया। ज्यादातर प्रत्याशी रिपीट किए। भाजपा के कैंडिटेंट के प्रति एंटीइन्कम्बेंसी तो थी ही उनके पास खुद का विजन और काम भी नहीं था। वे पूरी तरह प्रधानमंत्री मोदी और धर्म के सहारे ही थे। पार्टी ने भी पूरी तरह मोदी फॉर्मूला लागू किया था। विधानसभा में हाल ही में जीते मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मतदाताओं ने इस फॉमूले को स्वीकार कर लिया, लेकिन राजस्थान में अलग तेवर अपनाते हुए रद्द कर दिया। यहां विकास और प्रत्याशी के लिए उसने कांग्रेस और निर्दलीय को मौका दिया।

जातियों की नाराजगी: राजस्थान में भाजपा की चुनाव हार का एक बड़ा कारण यह भी है कि जातिगत समीकरणों के आगे पार्टी की रणनीति पिछड़ गई। इधर, जातिगत ध्रुवीकरण का सीधा और भरपूर फायदा कांग्रेस को मिला। लगभग हर सीट पर वोट बैंक जातियों में बंटा दिखाई दे रहा था। दौसा, चूरू, बाड़मेर, सीकर, भरतपुर, दौसा-सवाईमाधोपुर जैसी सीटों पर चुनाव जातियों में बंट गया। ऐसे माहौल में भाजपा की रणनीति और तैयारी फीकी पड़ गई। राजपूत वोट बैंक ने इस बार पूरे उत्साह से चुनाव में हिस्सेदारी नहीं निभाई। भाजपा नेताओं से नाराजगी के कारण राजपूत वोट बैंक वोट डालने नहीं निकले। बीजेपी के लिए ये बड़ा डेंट रहा। कांग्रेस ने गठबंधन कर सीटें दूसरे दलों के लिए छोड़ीं, जिससे कांग्रेस को खुद की सीटों पर फायदा पहुंचा। वसुंधरा राजे जनाधार वाली नेता मानी जाती हैं, लेकिन इन चुनावों में कोई जिम्मेदारी नहीं थी। वे अपने बेटे के इलाके में ही सक्रिय रहीं। विधानसभा चुनाव में उनको सक्रिय किया गया था लेकिन बहुमत मिलने के बाद भजनलाल शर्मा को सीएम बनाए जाने और उनकी कैबिनेट के नए चेहरों को शामिल करने की घटनाओं ने पूरे प्रदेश को चौंका दिया था। वसुंधरा राजे व उनके समर्थक माने जाने वाले नेताओं को किनारे कर दिया गया था। राजे और उनके समर्थकों को नजरअंदाज करने से पार्टी को नुकसान हुआ है। विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री पद की प्रबल दावेदार थीं। उन्हें साइडलाइन कर हाईकमान ने भजनलाल को सीएम बनाया। इसके बाद वे राजस्थान की राजनीति में सक्रिय नजर नहीं आईं। इस चुनाव में सिर्फ झालावाड़ पर फोकस किया। विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री पद की प्रबल दावेदार थीं। उन्हें साइडलाइन कर हाईकमान ने भजनलाल को सीएम बनाया। इसके बाद वे राजस्थान की राजनीति में सक्रिय नजर नहीं आईं। इस चुनाव में सिर्फ झालावाड़ पर फोकस किया।
सबसे बड़ी चर्चा इसी बात की है कि क्या अब मुख्यमंत्री को बदला जाएगा। क्योंकि सीएम के तौर पर पूरे राज्य को जिताने की जिम्मेदारी उनकी थी। एमपी और छत्तीसगढ़ में राजस्थान के साथ ही विधानसभा चुनाव हुए थे। वहां भी भजनलाल की तरह सीएम बनाए गए थे। उनकी परफॉर्मेंस काफी अच्छी रही है। ऐसे में भजनलाल शर्मा के सामने आज नहीं तो कल संकट आना तय है। दूसरा, मंत्रिमंडल में भी फेरबदल जल्द देखने को मिलेगा। हालांकि भजनलाल के पक्ष में एक मात्र ये पॉइंट है कि उन्होंने कुछ समय पहले ही काम संभाला है। उन्हें अभी काम करने का अवसर नहीं मिला है, लेकिन उनके गृह जिले भरतपुर में भी पार्टी का चुनाव हारना और इतनी सीटें गंवाने से परफॉर्मेंस पर सवाल उठने तय है।
भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी भी बदले जा सकते हैं। इनका भी कोई खास प्रभाव नहीं दिखा। विधानसभा चुनाव के वक्त से पूर्व नेता प्रतिपक्ष राजेन्द्र राठौड़ का समय खराब चल रहा है। हालांकि वे किसी पद पर नहीं हैं, लेकिन पार्टी में उनका प्रभाव है। पहले तारानगर से खुद हारे उसके बाद मौजूदा सांसद राहुल कस्वां से विवाद शुरू हुआ। विवाद के चलते जाट-राजपूत विवाद बढ़ता चला गया। इस विवाद के कारण कस्वां की टिकट कटी और वे पार्टी छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हो गए। लेकिन राठौड़ के तमाम प्रयासों के बाद चूरू सीट हाथ से निकल गई। जाट और राजपूत की जंग को हवा देने में राठौड़ को क्या सजा मिलेगी देखना होगा? हां। भले ही सरकार बने कम समय ही हुआ है, लेकिन राजस्थान की तासीर है कि उसे जल्दी परिणाम चाहिए। दिसंबर में भाजपा सरकार बनने के बाद सरकार या पार्टी की ऐसी कोई लाइन नहीं दिखी, जिससे वो सीधे प्रभावित होती हों। कांग्रेस की योजनाओं को देखना शुरू कर दिया। राष्ट्रीय मुद्दे यहां धराशायी हो गए। इस कारण ज्यादातर सीटों पर मार्जिंन भी घट गया। सरकार के बुलडोजर मॉडल को यहां ज्यादा पसंद नहीं किया गया। डॉ. किरोड़ीलाल मीणा का पूर्वी राजस्थान के कुछ इलाकों में प्रभाव है। उनके समर्थक कहते थे कि उन्हें सीएम या डिप्टी सीएम बनाया जाएगा, लेकिन मंत्रिमंडल में भी उनका अपमान हुआ था। मीणा ने अपने कई बार इस्तीफे की बात कहकर माहौल बनाने की कोशिश की, लेकिन जनता को उनका विपक्ष में रहना ज्यादा पसंद आता है। नागौर से भाजपा प्रत्याशी ज्योति मिर्धा की लगातार ये दूसरी हार है। वे विधानसभा चुनाव में ही पार्टी में शामिल हुई थीं। पहले विधानसभा और फिर लोकसभा चुनाव हारीं। इससे पहले कांग्रेस में वे चुनाव हारती रही हैं। केंद्रीय मंत्री रहते हुए बाड़मेर-जैसलमेर सीट से केंद्रीय मंत्री कैलाश चौधरी हार गए, ये भी उनके लिए चिंताजनक होगा। पूर्व नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ सहित कुछ नेताओं के सामने संकट रहेगा। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भले अपने बेटे वैभव को नहीं जीता पाए, लेकिन सीकर, बांसवाड़ा और नागौर में गठबंधन में उनकी बड़ी भूमिका रही है। तीनों सीटें जीत ली गई हैं। इसके अलावा वे अमेठी के प्रभारी रहे हैं। वहां भी पार्टी ने जीत दर्ज की। ऐसे में उनका कद बढ़ना तय है। कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के आक्रामक रवैया और सरकार पर प्रहार से जो छवि बनी है, उससे उनका काफी प्रभाव बढ़ा है। पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट भी चुनाव में अपने प्रभाव वाले सभी जगहों पर प्रत्याशियों को जिताने में कामयाब रहे। ऐसे में कांग्रेस के तीनों नेताओं का कद काफी बढ़ा है। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी, पूर्व मंत्री प्रतापसिंह खाचरियावास जैसे नेता भले चुनाव हार गए, लेकिन पार्टी में इनके प्रति सहानूभूति रहेगी, क्योंकि वहां चुनाव लड़ने को कोई तैयार नहीं था। राजस्थान में बीजेपी सरकार बनने के बाद पार्टी उत्साहित थी। इस बार भी टारगेट 25 सीटें जीतने का लिया हुआ था। वहीं कांग्रेस ने क्षेत्र में पकड़ रखे वाले विधायकों सहित अच्छे कैंडिडेट्स को मैदान में उतारा। कांग्रेस विधायकों में से मुरारी लाल मीणा, हरीश मीणा और बृजेंद्र ओला जीत गए और केवल ललित यादव हार गए। इससे कांग्रेस को 3 सीटों का फायदा मिला। कांग्रेस की दूसरी रणनीति भी सफल रही। राजस्थान में कांग्रेस ने गठबंधन की सभी सीटें जीत लीं। इनमें आरएलपी के हनुमान बेनीवाल ने नागौर, सीपीआई के अमराराम ने सीकर और बीएपी के राजकुमार रोत ने बांसवाड़ा में बीजेपी को हरा दिया। राहुल कस्वां का टिकट काटना भी बीजेपी को भारी पड़ गया। विधानसभा चुनाव में पार्टी में शामिल कर ज्योति मिर्धा को टिकट दिया। वे विधानसभा चुनाव के बाद इस बार का लोकसभा चुनाव भी हार गईं।
युवा नेता को नहीं साधा: पश्चिमी राजस्थान में बीजेपी के बड़े नेताओं ने अपनी राजनीतिक विरासत को बचाने के लिए युवा नेता रविन्द्र सिंह भाटी को बीजेपी में शामिल नहीं होने दिया। इसका नुकसान उन्हें विधानसभा चुनाव में भी हुआ और लोकसभा चुनाव में भी। छोटी सी लड़ाई ने बीजेपी के हाथ से बाड़मेर की सीट छीन ली। सीएम भजनलाल शर्मा ने इस लड़ाई को भांपा जरूर था, लेकिन भाटी को साध नहीं पाए।

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