• राजस्थान में सशक्त लोकायुक्त और शराब बंदी के लिए 31 दिन तक अनशन पर रहे भाजपा के पूर्व विधायक गुरुशरण छाबड़ा की आज के दिन (3 नवम्बर, 2015) अनशन पर रहते हुए मौत हो गई थी। सम्भवतया देश में भी यह अनूठा उदाहरण होगा, जब भ्रष्टाचार के खिलाफ सशक्त लोकायुक्त कानून बनाने के लिए किसी शख्स ने अपनी शहादत दी हो. उनकी शहादत पर वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र राज का आलेख……….
  • जयपुर। राजस्थान के इतिहास में अब ये शब्द अमिट स्याही से अंकित हो गए है- शहीद स्मारक पर मैं, शहादत देने आया हूं। क्योंकि इस बार का संघर्ष, सरकार से आर पार का होगा। सरकार की संवेदनहीनता ने इसे साकार कर दिया। निष्ठुर बनी सरकार एक सामाजिक कार्यकर्ता के अमूल्य जीवन को लील गई। उससे ये शब्द अमर हो गए है। भविष्य में जब भी राजस्थान में सशक्त लोकायुक्त और शराब बंदी का जिक्र होगा। पूर्व विधायक गुरुशरण छाबड़ा का नाम अवश्य याद किया जाएगा। राजस्थान में तो निश्चित ही यह पहला मामला हैं। सम्भवतया देश में भी यह अनूठा उदाहरण होगा, जब भ्रष्टाचार के खिलाफ सशक्त लोकायुक्त कानून बनाने के लिए किसी शख्स ने अपनी शहादत दी हो और वह भी उस वक्त जब देश में नहीं, प्रदेश में भी भ्रष्टाचार के हजारों – करोड़ों के मामले
    सुरसा की मांनिद अपना विकराल रूप दिखा रहे हो। ऐसे हालात में तो सरकार को ही लोकपाल को मजबूत करने की दिशा में तेजी से कार्रवाई करनी चाहिए थी। प्रदेश में भ्रष्टाचार के जो मामले उजागर हुए हैं। वे अब तक के इतिहास में बेमिसाल़ है। खान महाघूस कांड हो या आवासीय एकल पट्टा या फिर पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार द्वारा मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे के पूर्व कार्यकाल की अनियमितताओं की जांच के लिए गठित माथुर आयोग। राजस्थान उच्च न्यायालय ने माथुर आयोग के गठन को विधिक तौर पर सही नहीं माना और आयोग की १८०० से अधिक फाइलों की लोकायुक्त से जांच करने के आदेश दे दिए। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी न्यायालय के आदेश की पालना में फाईलें लोकायुक्त को जांच के लिए भेज दी। दिलचस्प बात यह हैं कि मौजूदा लोकायुक्त कानून के तहत मुख्यमंत्री का आचरण या कार्य उसके क्षेत्राधिकार में ही नहीं आता हैं। ऐसे में जांच यदि मुख्यमंत्री तक पहुंचती हैं तो लोकायुक्त क्षेत्राधिकार से बाहर होने का हवाला देंगे। तब मामला वहीं दफन हो जाएगा। इस मामले में उच्च न्यायालय से ज्यादा मुख्यमंत्री गहलोत से चूक हुई। क्योंकि गहलोत ने माथुर आयोग का गठन ही राजे की कथित भ्रष्ट कारगुजरियों को उजागर करने की मंशा से किया था। ऐसा ही मामला मौजूदा राजे सरकार का हैं। जिसने खान महाघूस कांड में आंवटित हुई ६०० से अधिक खानों की जांच की फाइलें लोकायुक्त को भेज दी है। इस मामले में एक वरिष्ठ आईएएस सहित कई अधिकारी जेल की सलाखों के पीछे है। नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी का आरोप हैं कि इन खानों के आंवटन में ४५००० करोड़ रुपए का घपला हुआ है। कांग्रेस की मांग है कि इस प्रकरण की जांच केन्द्रीय जांच ब्यूरो से कराई जाए। कांग्रेस की इस मांग से यह रेखांकित होता हैं कि उसे अपनी पुरानी भूल का अहसास हो गया हैं। कि यदि जांच की आंच मुख्यमंत्री राजे तक पहुंचती हैं तो लोकायुक्त राजे के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकेंगे। इन प्रकरणों से एक छिपा हुआ तथ्य और उजागर होता है। बाहरी तौर पर कांग्रेस और भाजपा का एक-दूसरे पर आरोप लगाना और अन्दरखाने हमजोली होना। क्योंकि हकीकत में तो दोनों ही पार्टी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए है। ऐसे में कहीं यह जनता जनार्दन को भ्रमित करने की साजिश तो नहीं। क्योंकि इन मामलों ने मौजूदा भाजपा और पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के काम-काज की कलाई तो खोल कर रख ही दी हैं। कि लोकायुक्त की मजबूती के लिए दोनों ही राजनीतिक दल बहुत गम्भीर नहीं है। छाबड़ा की मुख्य मांग मुख्यमंत्री को लोकायुक्त के जांच के दायरे में लाने की थी। वे चाहते थे कि राजस्थान में १९७३ से बने लोकायुक्त कानून कर्नाटक और मध्य प्रदेश से भी अधिक सशक्त हो। इसमें अन्वेषण और अभियोजन के अधिकार भी लोकायुक्त को हो। प्रदेश भ्रष्टचार और नशा मुक्त हो। इस महान उद्देश्य को लेकर ही छाबड़ा ने गांधी जयन्ती २ अक्टूबर से अनशन शुरु किया। इस बार अनशन का स्थान जयपुर में शहीद स्मारक पर था। यह उनके जीवन का चौदहवां अनशन था। बीते चार सालों में उनका यह चौथा अनशन था। पहले दो अनशनों में शराब बंदी मुख्य मांग की थी। लेकिन बाद में अन्ना आंदोलन के चलते उन्होंने सशक्त लोकायुक्त की मांग को वरीयता दी। पहले किए अनशन, अनिश्चितकालीन थे। जबकि इस बार उन्होंने आमरण अनशन की घोषणा की थी। उनका कहना था, इस बार सरकार से आर पार का संघर्ष होगा। या तो सरकार अपने समझौते को लागू करे, नहीं तो शहीद स्मारक पर शहादत देंगे। सरकार अडिय़ल रवैया अपनाएगी, इसका उन्हें पूरा आभास था। यह समझ कर उन्होंने तैयारी भी पूरी की थी। अनशन शुरू करने से पहले वे हरिद्वार में गंगा स्नान और अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर में मत्था टेक कर आए। तो अजमेर के दरगाह शरीफ और पुष्कर के ब्रह्मा मन्दिर भी गए। सब जगह एक ही अरदास। सरकार जनहित में लोकायुक्त को सशक्त करे और प्रदेश को नशा मुक्त घोषित करे। राजस्थान में शराब बंदी हो। गोकुल भाई भट्ट इस मांग को लेकर प्रदेश के गठन के बाद से ही आंदोलन चले हुए थे। उनके प्रयासों से राज्य के चारों आदिवासी जिलों सहित दस जिलों में शराब की बिक्री बंद कर दी गई थी। आपात काल के बाद देश – प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी। प्रधान मंत्री मोरार जी भाई देसाई शराब बंदी के प्रबल पेरोकार थे। भट्ट ने प्रदेश में शराब बंदी का आंदोलन तेज किया। इस मुहिम को संघ – जनसंघ की पृष्टभूमि के विधायकों का पूर्ण समर्थन मिला। इनमें गुरुशरण छाबड़ा और मौजूदा गृह मंत्री गुलाब चन्द्र कटारिया की भूमिका अग्रणी रही। देसाई के दबाव में प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत को १ अप्रेल १९८० से शराब बंदी लागू करनी पड़ी। यह शराब बंदी कुछ समय बाद ही कांग्रेस सरकार के मुख्य मंत्री शिवचरण माथुर ने समाप्त कर दी। तब से शराब की बिक्री से सरकार की आमदनी में अधिकतम बढ़ोतरी हो, ऐसी नीतियां बनाई जाने लगी। दूसरी ओर नशा मुक्ति आंदोलन को भी सरकार आर्थिक मदद देने लगी। एक तरह से सरकार का यह दिखावा ज्यादा था। असली मंशा तो शराब के व्यवसाय से राजस्व में इजाफा कैसे हो, इस पर जोर दिया जाने लगा। इसके चलते आबकारी से होने वाली आमदनी सरकार का सबसे बड़ा आय का जरिया बन गया। आमदनी के इस प्रथम पायदान को हाल के सालों में बाड़मेर में कच्चे तेल के खनन से मिलने वाली रायल्टी ने तोड़ा है। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को महात्मा गांधी के आदर्शों को मानने वाला माना जाता है। इस संयोग के चलते छाबड़ा की शराब बंदी की मांग पर कांग्रेस सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम बढ़ाए। इससे गहलोत की गांधीवादी छवि में निखार आया। वहीं, छाबड़ा को गोकूल भाई भट्ट के बाद शराब बंदी के लिए संघर्ष करने वाले दूसरे बड़े नेता के तौर पर पहचान मिली। गहलोत ने विधान सभा चुनाव से पहले शराब बंदी के लिए छाबड़ा से जो समझौता किया था। नई बनी वसुन्धरा राजे की सरकार ने उस समझौते को तोड़ मरोड़ दिया। इसके चलते पांच महीने बाद ही छाबड़ा को १ अप्रेल २०१४ से अपना अनशन शुरु करना पड़ा। इस दिन से सरकार ने नई आबकारी नीति के तहत शराब की दुकानों के लाइसेंस के लिए आवेदन आमंत्रित किए थे। एक तरह से यह सरकार और छाबड़ा में सीधी टकराव की शुरुआत थी। इस के चलते सरकार का छाबड़ा से अनशन के ४५ वें दिन समझौता हुआ। समझौते में पूर्व के समझौते की भावना के अनुरूप कार्रवाई करने का तय हुआ। वहीं, लोकायुक्त कानून को सशक्त और प्रभावी बनाने के लिए महाधिवक्ता नरपत मल लोढ़ा की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कमेटी का गठन करने पर सहमति बनी। इस समिति को एक वर्ष में यानी १५ मई २०१५ तक अपनी रिपोर्ट सरकार को देनी थी। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। इस पर छाबड़ा ने २ अक्टूबर से आमरण अनशन आरम्भ कर दिया। सरकार की मंशा शुरु से ही आंदोलन को कुचलने की रही। पांचवे दिन तबीयत खराब होने पर छाबड़ा को एसएमएस अस्पताल में भर्ती कराया गया। तो उन्हें संक्रमित रोग स्वाइन फ्लू के रोगियों के साथ रखा गया। कार्यकर्ताओं और परिजनों के विरोध के बाद उन्हें मेडिकल आईसीयू में भेजा गया, जहां पुलिस का कड़ा पहरा था। कार्यकर्ता – समर्थकों के मिलने पर सख्ती। संक्षिप्त बातचीत। अनशन समाप्त करने का दबाव। इस दमन चक्र के बावजूद इच्छा शक्ति के बल पर जल्दी ही छाबड़ा के स्वास्थ्य में सुधार हुआ। चिकित्सकों की सलाह पर उन्हें पांच दिन बाद दुरस्त बताकर अस्पताल से छुट्टी दे दी गई। तो वे अपने समर्थकों के साथ फिर से शहीद स्मारक पर अनशन करने पहुंच गए। चार दिन बाद ही तबीयत खराब होने पर उन्हें फिर अस्पताल में भर्ती कर दिया गया। इस बार सरकार का रवैया बदला हुआ था। लेकिन, शरीर शिथिल हो गया था। मुंह से पानी पीना निरन्तर कम होता गया। वहीं चीनी-नमक के घोल वाले डिप को चढ़ाने के लिए शरीर में नसों का मिलना दुभर होता गया। ऐसी स्थिति में चिकित्सकों ने दाई जांघ में सेन्ट्ल लाइन लगाने का तय किया। कुछ घंटों के बाद ही यह तरीका विफल हो गया। वहीं, इससे खून के थक्के फैलने से पैर में सूजन आ गई। इसके दो दिन बाद यानी २ नवम्बर को वे कोमा में चले गए। अगले दिन भोर में करीब साढ़े चार बजे चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। छाबड़ा जीवन भर सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ संघर्षशील रहे। वहीं, मरणोपरान्त भी वे समाज के लिए समर्पित रहे। इस भावना के तहत उनके नेत्र और देह का मेडिकल कॉलेज को दान किया गया।
  • – दीये और तूफान की लड़ाई
    यह लड़ाई थी, दीये और तूफान की। एक साधारण आदमी और राज्य सराकर की। एक तरफ सरकार थी तो दूसरी तरफ थे साधारण आदमी जिन्हें राजस्थान का गांधी कहा जाता है। लड़ाई लोकतंत्र और राजतंत्र के बीच भी थी। लड़ाई व्यवस्था के उस दोहरे चरित्र से भी थी जिसकी कथनी और करनी में जमीन आसमान का अन्तर था। लड़ाई विश्वास और वादाखिलाफी के बीच भी थी। सरकार ने एक साल में लोकायुक्त को मजबूत करने के लिए कानून बनाने का वादा किया था और छाबड़ा ने सरकार पर भरोसा किया था। ४५ दिन की तपस्या-अनशन के बाद सरकार ने १५ मई २०१४ को समझौता किया था। राजे चाहती थी अनशन की समाप्ति पर वे छाबड़ा को अपने हाथों से रस पिलाए। लेकिन, छाबड़ा सहमत नहीं हुए। उन्होंने जिद कर आईसीयू में काम करने वाली एक महिला सफाई कर्मचारी से ही जूस पीया।
    हालांकि सीएम वसुन्धरा राजे और छाबड़ा के पुराने सम्बन्ध थे। राजस्थान से राजनीतिक पारी शुरु करने वाली वसुन्धरा राजे को जब जनता पार्टी के कालखण्ड में उसकी युवा शाखा का उन्हें उपाध्यक्ष बनाया गया था। उस वक्त छाबड़ा विधायक के साथ ही युवा मोर्चा में उनसे पहले उपाध्यक्ष भी थे। इस कार्यकारिणी में मौजूदा गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया और विधायक घनश्याम तिवाड़ी भी पदाधिकारी थे।

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