जयपुर। भाजपा के कद्दावर नेता विधायक घनश्याम तिवाड़ी ने आखिर अपनी ही सरकार के खिलाफ ताल ठोंक दी। वे चाणक्य बनकर सरकार के खिलाफ चन्द्रगुप्त खड़े करने की बात कर रहे हैं और पूरे प्रदश में घूम रहे हैं। उनका संदश है कि राजस्थान की भाजपा सरकार में सामंती सोच के लोग काबिज हो गए हैं। ये लोग इस मरुधरा की धन-संपदा को लूटने में लगे हुए हैं। सामाजिक समरसता खत्म कर रहे हैं। गरीब सवर्ण समाज के लोगों के लिए आथिज़्क न्याय का सपना दूर की कौड़ी साबित हो रहा है। सरकार, पाटीज़् और संगठन पर हावी इन सामंती और व्यक्तिवादी सोच के व्यक्तियों को न तो पार्टी की नीतियों व सिद्धांतों से मतलब है और ना ही पार्टी के उन कार्यकर्ताओं व नेताओं के मान-सम्मान को तरहीज दी जा रही है, जिन्होंने इस पाटीज़् को एक पौधे से वटवृक्ष बनाया है। तिवाडी के इन बयानों और पिछले दिनों जयपुर में अपना दम-खम दिखाने के लिए किए गए शक्तिप्रदर्शन से पार्टी में हलचल तो है, लेकिन पार्टी नेतृत्व फिलहाल इसे बहुत गम्भीरता से नहीं ले रहा है। इसे अनुशासनहीनता भी नहीं माना जा रहा है। विधानसभा चुनाव अभी काफी दूर है और इस दौरान पार्टी की राजनीति कई रंग बदल सकती है। पार्टी और खुद मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की नजर इस बात पर है कि देखें अपने दम पर तिवाडी कितने चंद्रगुप्त खडे कर पाते हैं।
मुख्यमंत्री और वसुंधरा राजे और घनश्याम तिवाडी के बीच खंीचतान का लम्बा इतिहास है। इस खींचतान में पहले तिवाडी के साथ नेताओं की अच्छी खासी जमात थी, लेकिन पिछले चुनाव के बाद इनमें से ज्यादातर या तो अब हमारे बीच नहंी है या राजे के पक्ष में हो गए हैं। ऐसे में अकेले पडे तिवाडी के साथ उनके ही विधानसभा क्षेत्र में पार्टी के कार्यक्रमों में कार्यकर्ताओंं द्वारा की गई बदसलूकी नेे तिवाडी को वह अवसर दे दिया, जिसकी वे तलाश कर रहे थे। पर सवाल यह है कि क्या तिवाडी वास्तव में वह सब कर पाएंगे, जिसका वे दावा कर रहे हैं। राजनीति में कार्यकर्ता उसके साथ होता है, जिसके हाथ में सत्ता होती है। इस मामले में अब भाजप और कांग्रेस में कोई अंतर नहीं रह गया है। भाजपा में ही कल्याण सिंह और उमा भारती ऐसे पुख्ता उदाहरण है जो यह बताते हैं कि पार्टी से बाहर जा कर नेता का वजूद बहुत लम्बे समय तक नहीं रह पाता। उधर एक नेता के रूप में वसुंधरा राजे की व्यक्तिगत लोकप्रियता में अभी भी कोई कमी नहीं आई है। वे आज भी प्रदश में भाजपा का चेहरा है। संगठन पर उनकी पूरी पकड है और अब तो राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से भी उनके समीकरण सही होते दिख रहे है। इन हालात में तिवाडी की यह लडाई वास्तव में काफी रोचक होती दिख रही हैं।
पुराना है मनमुटाव का इतिहास
प्रदेश के लोगों को राजे का पिछला कार्यकाल याद होगा। दोनों नेताओं में तभी से टकराव की राजनीति चल रही है, जब पूर्व मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत के उपराष्ट्रपति बनने के बाद प्रदेश की कमान झालावाड से सांसद रही वसुंधरा राजे को सौंप दी गई थी। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद राजे और तिवाड़ी के बीच वैचारिक और नीतिगत निर्णयों को लेकर टकराव रहा। वर्ष 2003 में प्रदेश में पहली बार 120 सीटों के स्पष्ट बहुमत से भाजपा की सरकार बनी। इस जीत का सेहरा वसुंधरा राजे के सिर बंधा और वे प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी । उनके मंत्रिमण्डल में घनश्याम तिवाड़ी को केबिनेट मंत्री का दर्जा मिला। उन्हें सम्पूर्ण शिक्षा की जिम्मेदारी दी गई। लाखों युवाओं को शिक्षा क्षेत्र में रोजगार भी मिला। शिक्षा मंत्री के रूप में मिली लोकप्रियता से तिवाडी की उम्मीदें परवान चढी। यही वह दौर था जब केन्द्र में जसवंत सिंह और प्रदेश में ललित किशोर चतुर्वेदी, महावीर प्रसाद जैन, गुलाब चंद कटारिया, घनश्याम तिवाडी, रघुवीर सिंह कौशल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुडी पूरी लॉबी एकाएक वसुंधरा राजे के खिलाफ मैदान मे उतरी और अंसतोष की लहर पूरे प्रदश में दौडी। इसी बीच तिवाडी के सांगानेर विधानसभा क्षेत्र में महिन्द्र सेज के लिए जमीन अवाप्ति का मामला सामने आया और तिवाडी सहित इस पूरी लॉबी को अपने विरोध के लिए तत्कालिक कारण मिल गया। उस दौरान नवरात्रों में तिवाडी का मौनव्रत काफी चर्चित रहा था। खैर वसुंधरा राजे जैसे-तैसे उस चक्रव्यूह से बाहर निकली और विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले ही मंत्रिमण्डल फेरबदल में राजे ने तिवाडी को शिक्षा से हटा कर खाद्य और विधि विभाग की जिम्मेदारी सौंप दी। ये दोनों ही विभाग तिवाडी के कद के मुताबिक नहीं थे। विधानसभा चुनाव से पहले विधायक डॉ. किरोडी लाल मीणा व भरतपुर राजघराने के पूर्व राजा विश्वेन्द्र सिंह के बगावती तेवरों और वरिष्ठ नेताओं घनश्याम तिवाड़ी, कैलाश मेघवाल, गुलाब चंद कटारिया , ओंकार सिंह लखावत जैसे कई वरिष्ट नेताओं के मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के खिलाफ भ्रष्टाचार व कई मुद्दों पर की गई बयानबाजी से पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। हार के कारण मतभेद कुछ दूर हुए और कुछ बात पटरी पर आती दिखी, लेकिन यहां फिर बात बिगडी और पूरे पांच साल तक तिवाडी लाख कोशिशों के बावजूद नेता प्रतिपक्ष नहीं बन पाए। इसी दौरान जयपुर के सांसद गिरधारी लाल भार्गव के निधन के बाद लोकसभा चुनाव में घनश्याम तिवाड़ी को टिकट दिया, लेकिन वे चुनाव हार गए। तब भी तिवाड़ी समर्थकों ने यह आरोप लगाया कि संगठन के नहीं लगने और कई पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं के अंदरखाने भीतरघात करने से वे चुनाव हारे और कांग्रेस के महेश जोशी दस हजार से अधिक मतों से जीते। इस हार को लेकर भी तिवाड़ी और उनके समर्थकों में गुस्सा रहा।
इस हार के बाद प्रदेश अध्यक्ष पद से वसुंधरा राजे को हटाने को लेकर भी इन नेताओं के राजे के साथ विवाद व टकराव चलता रहा। इन विवादों को देखते हुए केन्द्रीय नेतृत्व को दखल देना पड़ा और प्रदेश अध्यक्ष पद से वसुंधरा राजे को हटाकर अरुण चतुर्वेदी को प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया। तब राजे और तिवाड़ी के बीच दूरियां बढ़ गई। वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव से पहले यह तकरार और बढ़ गई, जब तमाम प्रयासों और विरोध के बावजूद वसुंधरा राजे फिर से भाजपा की प्रदेशाध्यक्ष घोषित हो गई और गुलाब चंद कटारिया, कैलाश मेघवाल , ओंकार सिंह लखावत जैसे वरिष्ठ नेता राजे के पाले में आ गए व घनश्याम तिवाड़ी अकेले रह गए। विधानसभा चुनाव के दौरान सांगानेर से टिकट को लेकर घनश्याम तिवाड़ी को काफी मशक्कत करनी पड़ी और केन्द्रीय नेतृत्व के दखल के बाद उन्हें टिकट मिल पाया।
विधानसभा चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस को बुरी तरह परास्त करके दो तिहाई से अधिक बहुमत प्राप्त किया। वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री बनी, लेकिन मंत्रिमण्डल में तिवाड़ी को शामिल नहीं किया गया। यहीं नहीं लोकसभा चुनाव में जयपुर सीट से तिवाड़ी ने टिकट मांगा, लेकिन मुख्यमंत्री राजे के विरोध के चलते उन्हें टिकट नहीं मिला। उनके प्रतिद्वद्वंी रामचरण बोहरा को टिकट दिया, जो रिकॉर्ड मतों से जीते। इसके बाद तो सांसद बोहरा और विधायक तिवाड़ी समर्थकोंं में कई बार सार्वजनिक रुप से पार्टी कार्यक्रमों में तीखी बहस और झडप तक हुई।
विवाद इतना बढ़ा कि एक साल पहले हुए जयपुर नगर निगम चुनाव के दौरान सांगानेर क्षेत्र के वार्डों से विधायक घनश्याम तिवाड़ी के एक भी समर्थक को टिकट नहीं मिला। सभी टिकटें सांसद बोहरा के समर्थकों को मिली। तिवाड़ी ने वार्डों के हिसाब से प्रत्याशियों की सूची प्रदेशाध्यक्ष अशोक परनामी को दी थी, लेकिन उनके बताए नामों में से किसी को भी टिकट नहीं मिला। चार महीने पहले सांगानेर के भाजपा प्रशिक्षण शिविर में यह विवाद तब चरम पर पहुंच गया, जब विधायक तिवाड़ी के वहां पहुंचने पर सांगानेर मण्डल के कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों ने उनके साथ दुर्वव्यवहार करते हुए धक्का मुक्की की। लिखित शिकायत के बाद भी दोषी कार्यकर्ताओं पर कार्रवाई नहीं हुई, जिससे तिवाड़ी व राजे के बीच टकराव बढ़ता गया। आज हम जो कुछ होता देख रहे है वह दोनों नेताओं के बीच विवाद के इस लम्बे इतिहास का ही नतीजा है।
मनमुटाव इतना हो गया है कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के कायज़्क्रमों में घनश्याम तिवाड़ी नहीं जाते हैं और पार्टी कार्यक्रमों के हिसाब से जाना पड़ जाए तो वे कुछ देर रुककर चले जाते हैं। आमने सामने होने पर दोनों नेताओं के बीच अभिवादन तो होता है, लेकिन एक दूसरे से बात नहीं करते हैं। जो दोनों नेताओं के बीच टकराव को दर्शाता है।
तिवाडी के हथियार, पार्टी के सिद्वांत, कार्यकर्ता का सम्मान और आर्थिक पिछडों को न्याय
नेताओं की संख्या के हिसाब से देखें तो घनश्याम तिवाडी इस बार अकेले ही मैदान में दिख रहे हैं। ललितकिशोर चतुर्वेदी, रघुवीर सिंह कौशल अब हमारे बीच नहीं है, वहीं जसवंत सिंह बीमार हैं।
महावीर प्रसाद जैन चुप है तो कैलाश मेघवाल, गुलाब चंद कटारिया और ओंकार सिंह लखावत सरकार के साथ हैं। तिवाडी के साथ उनका परिवार ही दिख रहा है और तिवाडी इस बार मुद्दों का हथियार बना कर लडाई लडते दिख रहे हैं। वे पार्टी के सिद्वांतों, कार्यकर्ता के सम्मान और आर्थिक पिछडों को न्याय दिलाने के मुद्दे उठा रहे हैं। इनमें से पहले दो मुद्दे उन्हें उनके चंद्रगुप्त खडे करने में मदद कर सकते हैं, वहीं तीसरा मुद्दा उन्हें सवर्ण वोट बैंक का प्रतिनिधि बना सकता है।
अपने कार्यक्रमों में तिवाडी कह रहे है कि पार्टी के संस्थापक सदस्यों पं.दीनदयाल उपाध्याय, पं.श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं के विचारों व संदेशों को भी दरकिनार कर दिया गया है। सरकार और पार्टी को कुछ लोग चला रहे हैं, जिनका पार्टी, कायकर्ताओं और जनता के प्रति कोई लगाव नहीं है और ना ही जवाबदेही है। तिवाडी अपने साथ हुई घटना का उल्लेख भी कर रहे है। उनका कहना है कि उनके साथ सांगानेर विधानसभा क्षेत्र के भाजपा प्रशिक्षण शिविर में जब वे तो वहां कुछ कार्यकर्ताओंं व पदाधिकारियों (जो एक सांसद के समर्थक बताए जाते हैं) ने अतिथि के तौर पर आमंत्रित तिवाड़ी से उनका नाम और पहचान पूछी। दुर्वव्यवहार और धक्का मुक्की की। जिससे उनके हाथ में फैक्चर हो गया।
र्दुव्यवहार करने वाले कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों के खिलाफ लिखित शिकायत पार्टी के प्रदेश नेतृत्व को दी गई, लेकिन ना तो पार्टी नेतृत्व और ना ही सरकार ने इसे गंभीरता से लिया। अंतत उन्हें इस मामले को नजर अंदाज करना पडा , क्योंकि सरकार और पार्टी में व्यक्तिवादी व सामंती सोच के लोग हावी हो गए हैं। जब उन जैसे के साथ यह घटना हो सकती हैं तो आम कार्यकर्ता और जनता का तो क्या हाल होता होगा? उनका कहना है कि पूरे प्रदेश में दौरे किए तो सामने आया कि पार्टी कार्यकर्ताओं के मान-सम्मान को न केवल ठेस पहुंच रही है, बल्कि उनकी कहीं सुनवाई भी नहीं हो रही है। पार्टी व सरकार में कुछ लोगों का ही राज हो गया है। संगठन के प्रति समर्पित कार्यकर्ताओं को दरकिनार करके अनुभवहीन और व्यक्तिवादी राजनीतिक में विश्वास करने वाले लोगों को आगे बढ़ाया जाने लगा है। पार्टी के संस्थापक महापुरुषों के विचारों पर चलकर इस संगठन को सींचने वाले कार्यकर्तओं के मान-सम्मान को फिर से लौटाने के लिए घनश्याम तिवाड़ी ने अपनी संस्था पं.दीनयाल उपाध्याय स्मृति संस्थान को एकाएक काफी सक्रिय कर दिया है।
जिसके माध्यम से सरकार व पार्टी की सामंती व व्यक्तिवादी सोच से हताश व निराश हो चुके कार्यकर्ताओं को पं. दीनदयाल उपाध्याय के आदर्शों, संदेशों के साथ पार्टी की नीति-रीति के बारे में प्रशिक्षित करके उनमें नया जोश, उमंग और उत्साह का संचार किया जा सके। इस संस्थान के माध्यम से कार्यकर्ताओं को जोड़ा जाएगा। प्रशिक्षण शिविर, विचार गोष्ठी और महापुरुषों की जयंती कायज़्क्रमों के माध्यम से कार्यकर्ताओ को पं.दीनयाल के सिद्धांतों व नीतियों से अवगत कराने की बात कही जा रही है। एक दीनदयााल वाहिनी भी बना दी गई है। पूरे प्रदश में इसकी इकाइयां गठित हो रही हैं।
दिखाया दमखम
अपना दमखम दिखाने के लिए 25 दिसम्बर, 2015 को जयपुर के बिडला सभागार में कार्यकर्ता सम्मेलन रखा, जिसमें आशा से अधिक कार्यकर्ताओं का सैलाब उमड़ा। सभागार के अंदर और बाहर हजारों कार्यकर्ताओ की मौजूदगी में तिवाड़ी ने वटवृक्ष के रुप में इस पार्टी की स्थापना में पं.दीनदयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, भैरोंसिंह शेखावत जैसे नेताओं व हजारों कार्यकर्ताओ के कठिन परिश्रम के बारे में बताते हुए कहा कि अब भाजपा राज में ही पार्टी के कार्यकर्ताओं को भूला दिया गया है। पं.दीनदयाल के सिद्धांतों और कार्यकर्ताओं की भावनाओं के अनुरुप इस पार्टी व सरकार को बनाए रखने के लिए तिवाड़ी ने खुद को चाणक्य बनकर पूरे प्रदेश की दो सौ विधानसभाओं में चन्द्रगुप्त खड़ा करने का आह्वान किया तो कार्यकर्ताओ ने भारत माता और वंदेमातरम के जयकारों से तिवाड़ी के इस आह्वान का जोरदार समर्थन दिया।
इसकी गूंज पूरे प्रदेश के कार्यकर्ताओं और नेताओं तक पहुंची। जहां संगठन के प्रति समर्पित बहुत से कार्यकर्ताओं, पूर्व जनप्रतिनिधियों ने तिवाड़ी के इस पहल की सराहना करते हुए उनके साथ होने का कह रहे हैं, वहीं पार्टी व सरकार में सम्मेलन में उमड़े लोगों की तादाद ने हलचल मचा दी। पार्टी का मानना था कि दो-तीन हजार लोग ही पहुंचेंगे, लेकिन राजधानी के अलावा शेखावाटी, हाडौती, ढूंढाड से हजारों कार्यकर्ताओ के पहुंचने से सरकार व पार्टी में हलचल पैदा कर दी। इस सम्मेलन की चर्चा केन्द्रीय नेतृत्व तक पहुंची। इस सम्मेलन के बाद तिवाड़ी ने कई जिलों में दौरे किए, जिनमें उन्हें काफी समर्थन भी मिला। हालांकि पार्टी और उनके विरोधियों का कहना है कि उनके दौरों में एक जाति विशेष के लोग ही आते हैं। पार्टी कार्यकर्ताओ का समर्थन नहीं है। इससे उलट संस्थान से जुड़े पदाधिकारियों का मानना है कि तिवाड़ी को हर समाज का समर्थन मिल रहा है और हर समाज के सम्मेलनों में उन्हें बुलाया जा रहा है, बल्कि प्रशिक्षण शिविर भी लग रहे हैं। उधर, सम्मेलन के बाद पं. दीनदयाल उपाध्याय स्मृति संस्थान के बैनर तले सदस्यता अभियान, प्रशिक्षण शिविर, विचार गोष्ठी के कार्यक्रम शुरु हो गए हैं। संस्थान के संस्थापक सदस्यों में पूरे प्रदेश से करीब सवा सौ वरिष्ठ कार्यकर्ताओ को शामिल किया गया है, जिनमें कई पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ता पदाधिकारी पूर्व विधायक व अन्य जनप्रतिनिधि भी हैं।
अपनी जमीन मजबूत करना चाह रहे है तिवाडी
राजनीतिक व सियासी गलियारों में चर्चा है कि पण्डित दीनदयाल उपाध्याय स्मृति संस्थान का गठन के पीछे कहीं विधायक घनश्याम तिवाड़ी का मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से आर-पार की लड़ाई के मूड में तो नहीं है। बिडला सभागार में हुए कार्यकर्ता सम्मेलन में तिवाड़ी ने चाणक्य बनकर दो सौ विधानसभाओं में चन्द्रगुप्त खड़े करने का जो बयान दिया है और मण्डल व बूथ स्तर तक सदस्यता अभियान चलाकर टीम बनाने के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, उससे तो लगता है कि घनश्याम तिवाड़ी भविष्य के राजनीतिक हालातों को भांपते हुए अभी से जमीनी ताकत को मजबूत करने में लग गए हैं। जिस तरह से चाणक्य ने मगध से नंद वंश को हटाने की प्रतिज्ञा ली और इसे हासिल करने के लिए चन्द्रगुप्त को तैयार करके उसे मगध की गद्दी तक पहुंचाया, वैसे ही घनश्याम तिवाड़ी कोई करिश्मा कर पाएंगे या नहीं ये तो भविष्य के गर्त में है। लेकिन यह तो तय है कि वे कहीं न कहीं आशंकित है राजनीतिक भविष्य को लेकर। जिसके चलते उन्होंने दीनदयाल संस्थान का गठन किया है और उसे जमीनी तौर पर मजबूत करने के प्रयासों में भी तेजी से लगे हुए हैं। मुख्यमंत्री राजे के साथ वैचारिक मनमुटाव व अन्य कारणों से घनश्याम तिवाड़ी व उनके समर्थकों को अंदेशा है कि उनके साथ भी वहीं सलूक किया जा सकता है, जो पार्टी के वरिष्ठ नेता डॉ. किरोडी लाल मीणा के साथ हुआ था और उन्हें मजबूरन पार्टी को छोडनी पडी थी। भविष्य में भी दोनों नेताओं के बीच यह टकराव न केवल बढ़ेगा, बल्कि किसी न किसी नतीजे तक पहुंचने की भी संभावना है। चाहे वे केन्द्रीय नेतृत्व के दखल के बाद दोनों नेताओं में आपसी समझाइश से कोई न कोई रास्ता निकाला जाएगा या डॉ. किरोडी लाल मीणा की तरह कहीं घनश्याम तिवाड़ी को पार्टी छोडने पर मजबूर होना पड़े या विवाद बढने पर पार्टी से निष्कासित होने, विधानसभा चुनाव में टिकट नहीं मिलने जैसे नुकसान भी झेलने पड़ सकते हैं। वैसे तो खुले तौर पर अभी बड़े नेता या पदाधिकारी तिवाड़ी के समर्थन में सामने नहीं आ रहे हैं, लेकिन अंदरखाने कहीं न कही ऐसा समर्थन और ताकत है, जिसके दम पर घनश्याम तिवाड़ी इतने साहसिक फैसले लेकर सरकार और पार्टी को कठघरे में खड़ा कर पा रहे हैं। चर्चा है कि राजस्थान भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और उत्तरप्रदेश भाजपा के प्रभारी ओमप्रकाश माथुर व अन्य कुछ वरिष्ठ नेताओं का भी अंदरखाने घनश्याम तिवाड़ी को समर्थन मिला हुआ है। विधानसभा चुनाव में तीन साल को देखते हुए यह चक्रव्यूह अभेद बना रह पाएगा या नहीं तो भविष्य बताएगा, लेकिन इतना तय जरुर है कि तिवाड़ी दीनदयाल संस्थान के माध्यम से खुद को जमीनी स्तर पर मजबूत कर रहे हैं ताकि चुनाव से पहले उन्हें किसी तरह की राजनीतिक संकटों का सामना नहीं करना पड़े।