Dalit community was unhappy with the atrocities of Peshwas, therefore, Koregaon revenge for the war
जयपुर। आजादी से पहले महाराष्ट्र में शासन करने वाले पेशवा व मराठा राजाओं के राज में दलित समुदाय की स्थिति ठीक नहीं थी। उन पर कई तरह की बंदिशे थे। इतिहासकारों की मानें तो वहां दलित समुदाय की दशा बड़ी खराब थी। नगर में घुसते ही उन्हें कमर में झाड़ू लगाकर चलना होता था, जिससे उनके पैरों के निशान झाड़ू से मिटते जाए। नगर के बाहर के कुओं से पानी लेना होता था। वे दोपहर बाद ही घरों से निकल सकते थे। नगर में घुसते वक्त पैरों में घुंघरु बांधने होते थे। उनसे काम भी खूब कराया जाता था, लेकिन मजदूरी कम मिलती थी। यहीं नहीं लगान भी खूब वसूला जाता था। दूसरे कार्य करने की मनाही थी। हालांकि यह समुदाय बहुत मेहनती और बहादुर था। मराठा व पेशवा राज में भी इनकी सैनिक टुकड़ियां होती थी, लेकिन उन्हें वो मान-सम्मान नहीं मिलता था, जो दूसरी जातियों को था।
ऐसे में उनमें हीन भावना के साथ तत्कालीन राजा-महाराजाओं व शासन के प्रति खासा गुस्सा था। इस गुस्से को अंग्रेजों ने भांप लिया था और उन्होंने अपनी कंपनियों में उन्हें सैनिक बनाया। जब भीमा कोरेगांव में युद्ध हुआ तो अंग्रेज रेजीडेंट के साथ महार रेजीडेंट के सैनिक भी साथ थे। इस युद्ध में महार रेजीडेंट ने बड़ी बहादुरी से लड़ाई लड़ी और पेशवा सेना के भारी शिकस्त दी। इस जीत के लिए भीमा कोरेगांव में विजय स्मारक भी बनाया, जहां हर साल एक जनवरी को बड़ा समारोह होता है। इतिहासकारों का कहना है कि भीमा कोरेगांव में महार सैनिकों ने पेशवा और मराठाओं को नहीं हराया, बल्कि तब की ब्राह्मणवादी सत्ता को शिकस्त दी। तब महार व दलित समुदाय पर जो अत्याचार किए गए उसका बदला महार सैनिकों ने लिया। इस युद्ध में अपनी पूरी ताकत लगाकर पेशवा सेना को हराया। कहा जाता है कि अगर ब्राह्मण छुआछूत खत्म कर देते तो शायद ये लड़ाई नहीं होती।

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