जयपुर। होली का पर्व भारत ही नहीं इस देश के बाहर दुनिया के करीब-करीब सभी देशों में भी पूरी रंगीनियत के साथ मनाया जाता है। बड़े धूमधाम से वहां भी होलिका दहन और धुलण्डी मनाई जाती है। खासकर उन देशों में होली का पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है, जहां पर भारतीय बड़ी तादाद में हैं और वहां की संस्कृति में रच बस गए हैं। ऐसे भारत के हर प्रांत और हिस्से में भी अलग-अलग अंदाज में होली पर्व बनाने का रिवाज हैं। हालांकि सभी की भावना एक ही होती है, वह प्रेम, भाईचारा और आपसी मिलन। सबसे अलग होली होती है, यूपी के मथुरा और ब्रज मंडल, जहां होली पर रास और रंग का मिश्रण देखते ही बनता है। बरसाने की लठ्मार होली फल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है। इस दिन नंद गांव के ग्वाल बाल होली खेलने के लिए राधा रानी के गाँव बरसाने जाते हैं और विभिन्न मंदिरों में पूजा अर्चना के पश्चात जम कर बरसती लाठियों के साए में होली खेली जाती है। इस होली को देखने के लिए बड़ी संख्या में देश-विदेश से लोग बरसाना आते हैं।
फलैन गांव की इस अनूठी होली अपने आप में एक कौतुक है। होली पर गांव का एक पंडा मात्र एक अंगोछा शरीर पर धारण करके 20-25 फीट घेरे वाली विशाल होली की धधकती आग में से निकल कर और उसे फ्लांग कर जाता है। यह पंडा साल भर नियमानुसार पूजा पाठ करता है जिससे वह ऐसी विकराल ज्वालाओं के मध्य कूदने का साहस कर पाता है। होली में से उसके सकुशल निकलने के उपलक्ष्य में उसे जन्म एवं विवाह इत्यादि अवसरों पर सम्मानपूर्वक निमंत्रित किया जाता है। खलिहान का पहला अनाज भी उसे अर्पित किया जाता है। लोगों का मत है कि सैंकड़ों सालों से भक्त प्रहलाद के आग से सकुशल बच जाने की घटना को इस दृश्य के माध्यम से सजीव किया जाता है। इसलिए इस अवसर पर यहाँ लगने वाले मेले को प्रहलाद मेला कहा जाता है। गांव में प्रहलाद का मंदिर व कुंड भी है।
मालवा क्षेत्र में होली के दिन लोग एक दूसरे पर अंगारे फैंकते हैं। उनका विश्वास है कि इससे होलिका नामक राक्षसी का अंत हो जाता है। पंजाब और हरियाणा में होली शौर्य व पौरुष के प्रतीक के रूप में मनाई जाती है। दशम गुरू गोविंद सिंह जी ने होली के लिए पुल्लिंग शब्द होला महल्ला का प्रयोग किया। गुरु जी इसके माध्यम से समाज के दुर्बल और शोषित वर्ग की प्रगति चाहते थे। होला महल्ला का उत्सव आनंदपुर साहिब में छ: दिन तक चलता है। इस अवसर पर भांग की तरंग में मस्त घोड़ों पर सवार निहंग, हाथ में निशान साहब उठाए तलवारों के करतब दिखा कर साहस, पौरुष और उल्लास का प्रदर्शन करते हैं। पंज प्यारे जुलूस का नेतृत्व करते हुए रंगों की बरसात करते हैं और जुलूस में निहंगों के अखाड़े नंगी तलवारों के करतब दिखते हुए बोले सो निहाल के नारे बुलंद करते हैं। यह जुलूस हिमाचल प्रदेश की सीमा पर बहती एक छोटी नदी चरण गंगा के तट पर समाप्त होता है।
राजस्थान में भी होली के विविध रंग देखने में आते हैं। बाड़मेर में पत्थर मार होली खेली जाती है तो अजमेर में कोड़ा अथवा सांतमार होली कजद जाति के लोग बहुत धूम-धाम से मनाते हैं। हाड़ोती क्षेत्र के सांगोद कस्बे में होली के अवसर पर नए किन्नरों को किन्नरों की जमात में शामिल किया जाता है। इस अवसर पर बाज़ार का न्हाण और खाड़े का न्हाण नामक लोकोत्सवों का आयोजन होता है। खाडे के न्हाण में जम कर अश्लील भाषा का प्रयोग किया जाता है। राजस्थान के सलंबूर कस्बे में आदिवासी गेर खेल कर होली मनाते हैं। भील और मीणा युवक एक गेली हाथ में लिए नृत्य करते हैं। कुछ युवक पैरों में भी घुंघरू बांधकर गेर नृत्य करते हैं। इनके गीतों में काम भावों का खुला प्रदर्शन, अश्लील शब्दों और गालियों का प्रयोग होता है। जब युवक गेरनृत्य करते हैं तो युवतियाँ उनके समूह में सम्मिलित होकर फग गाती हैं। युवतियाँ पुरुषों से गुड़ के लिए पैसे माँगती हैं। इस अवसर पर आदिवासी युवक-युवतियाँ अपना जीवन साथी भी चुनते हैं।