जयपुर। होली मनाने का प्रचलन हर जगह पर अलग-अलग है। कोई धार्मिक तौर तरीके से मनाता है तो कोई इस दिन पूरे मस्ती के अंदाज में ना केवल रंगा रहता है, बल्कि कुछ जगह तो होली पर जीवन साथी चुनने की भी छूट होती है। ऐसी एक प्रथा मध्यप्रदेश में आदिवासी क्षेत्रों में होती है। मध्य प्रदेश के भील होली को भगौरिया कहते हैं। भील युवकों के लिए होली अपने लिए प्रेमिका को चुनकर भगा ले जाने का त्योहार है। होली से पूर्व हाट के अवसर पर हाथों में गुलाल लिए भील युवक ‘मांदल की थाप पर सामूहिक नृत्य करते हैं। नृत्य करते-करते जब युवक किसी युवती के मुँह पर गुलाल लगाता है और वह भी बदले में गुलाल लगा देती है तो मान लिया जाता है कि दोनों विवाह सूत्र में बँधने के लिए सहमत हैं। युवती द्वारा प्रत्युत्तर न देने पर युवक दूसरी लड़की की तलाश में जुट जाता है। गुजरात के भील इसी प्रकार ‘गोलगधेड़ो नृत्य करते हैं।
इसके अंतर्गत किसी बांस अथवा पेड़ पर गुड़ और नारियल बाँध दिया जाता है और उसके चारों ओर युवतियाँ घेरा बना कर नाचती हैं। युवक इस घेरे को तोड़कर गुड़ नारियल प्राप्त करने का प्रयास करता है जबकि युवतियों द्वारा उसका ज़बरदस्त विरोध होता है। इस विरोध से वह बुरी तरह से घायल भी हो जाता है। हर प्रकार की बाधा को पार कर यदि युवक गुड़ नारियल प्राप्त करने में सफ ल हो जाता है तो वह घेरे में नृत्य कर रही अपनी प्रेमिका या किसी भी युवती के लिए होली का गुलाल उड़ाता है। वह युवती उससे विवाह करने को बाध्य होती है। इस परीक्षा में युवक न केवल बुरी तरह से घायल हो जाता है बल्कि कभी-कभी कोई व्यक्ति मर भी जाता है। बस्तर में इस पर्व पर लोग ‘कामुनी शेडुम अर्थात कामदेव का बुत सजाते हैं।
उसके साथ एक कन्या का विवाह किया जाता है। फिर कन्या की चूडय़िाँ तोड़ दी जाती हैं और सिंदूर पोंछ कर विधवा का रूप दिया जाता है। बाद में एक चिता जला कर उसमें खोपरे भुन कर प्रसाद बाँटा जाता है। बनारस जैसी प्राचीन संस्कृति नगरी में होली के अवसर पर भारी मात्रा में अश्लील पर्चे वितरित किए जाते हैं। बंगाल में
फल्गुन पूर्णिमा पर कृष्ण प्रतिमा का झूला प्रचलित है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति को एक वेदिका पर रख कर सोलह खंभों से युक्त एक मंडप के नीचे स्नान करवा कर सात बार झुलाने की परंपरा है। मणिपुर में होली का पर्व ‘याओसांग के नाम से मनाया जाता है। यहाँ धुलण्डी वाले दिन को ‘पिचकारी कहा जाता है। याओसांग से अभिप्राय उस नन्हीं-सी झोंपड़ी से है जो पूर्णिमा के अपरा काल में प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी या सरोवर के तट पर बनाई जाती है। इसमें चैतन्य महाप्रभु की प्रतिमा स्थापित की जाती है और पूजन के बाद इस झोंपड़ी को होली के अलाव की भाँति जला दिया जाता है। याओसांग की राख को लोग अपने मस्तक पर लगाते हैं और घर ले जा कर तावीज बनवाते हैं।