– नोट के बदले वोट मामले में सात जजों की संविधान बेंच ने 1998 के नरसिम्हा राव के फैसले को पलटा
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 7 जजों की संविधान बेंच ने एकमत फैसले में कहा है कि अगर सांसद या विधायक रिश्वत लेकर सदन में मतदान या भाषण देते हैं तो वे मुकदमे की कार्रवाई से नहीं बच सकते हैं। आज 7 जजों की संविधान बेंच ने 1998 के नरसिम्हा राव के फैसले को पलटते हुए कहा कि अगर विधायक रिश्वत लेकर राज्यसभा में वोट देते हैं तो उन पर प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के तहत मुकदमा चल सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर 5 अक्टूबर, 2023 को फैसला सुरक्षित रख लिया था। दरअसल, सीता सोरेन 2012 में झारखंड विधानसभा में विधायक थीं। उस समय राज्यसभा चुनाव में मतदान के लिए उन पर एक राज्यसभा उम्मीदवार से उसके पक्ष में वोट डालने के लिए रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया था लेकिन इसके बजाय उसने अपना वोट किसी अन्य उम्मीदवार के पक्ष में वोट डाल दिया। सीता सोरेन के ससुर और झामुमो नेता शिबू सोरेन को 1998 की संविधान पीठ के फैसले से बचा लिया गया था। उस समय सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में पैसे लेकर राव सरकार के पक्ष में मतदान करने वाले सांसदों को अभियोजन से छूट दी थी। हालांकि, झामुमो सांसदों को रिश्वत देने वाले अभियोजन से नहीं बचे थे।
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस ए एस बोपन्ना, जस्टिस एम एम सुंदरेश, जस्टिस पी एस नरसिम्हा, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस मनोज मिश्रा की कॉन्स्टिट्यूशन बेंच ने कहा हम 1998 में दिए गए जस्टिस पीवी नरसिम्हा के उस फैसले से सहमत नहीं हैं, जिसमें सांसदों और विधायकों को सदन में भाषण देने या वोट के लिए रिश्वत लेने पर मुकदमे से छूट दी गई थी।
अगर कोई घूस लेता है तो केस बन जाता है। यह मायने नहीं रखता है कि उसने बाद में वोट दिया या फिर स्पीच दी। आरोप तभी बन जाता है, जिस वक्त सांसद घूस स्वीकार करता है। संविधान के आर्टिकल 105 और 194 सदन के अंदर बहस और विचार-विमर्श का माहौल बनाए रखने के लिए हैं। दोनों अनुच्छेद का मकसद तब बेमानी हो जाता है, जब कोई सदस्य घूस लेकर सदन में वोट देने या खास तरीके से बोलने के लिए प्रेरित होता है। आर्टिकल 105 या 194 के तहत रिश्वतखोरी को छूट हासिल नहीं है। रिश्वत लेने वाला आपराधिक काम में शामिल होता है। ऐसा करना सदन में वोट देने या भाषण देने के लिए जरूरत की श्रेणी में नहीं आता है। सांसदों का भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी को नष्ट कर देती है। हमारा मानना है कि संसदीय विशेषाधिकारों के तहत रिश्वतखोरी को संरक्षण हासिल नहीं है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सदन में नोट लेकर वोट देने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर पोस्ट करते हुए लिखा- स्वागतम! सुप्रीम कोर्ट का एक बड़ा फैसला जो स्वच्छ राजनीति तय करेगा और व्यवस्था में लोगों का विश्वास गहरा करेगा। यह मामला झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों के रिश्वत कांड पर आए आदेश से जुड़ा है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट विचार कर रहा था। आरोप था कि सांसदों ने 1993 में नरसिम्हा राव सरकार को समर्थन देने के लिए वोट दिया था। इस मसले पर 1998 में 5 जजों की बेंच ने फैसला सुनाया था। अब 25 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को पलट दिया है। यह मुद्दा दोबारा तब उठा, जब शिबु सोरेन की बहू और विधायक सीता सोरेन ने अपने खिलाफ जारी आपराधिक कार्रवाई को रद्द करने की याचिका दाखिल की। उन पर आरोप था कि उन्होंने 2012 के झारखंड राज्यसभा चुनाव में एक खास प्रत्याशी को वोट देने के लिए रिश्वत ली थी। सीता सोरेन ने अपने बचाव में तर्क दिया था कि उन्हें सदन में ‘कुछ भी कहने या वोट देने’ के लिए संविधान के अनुच्छेद 194(2) के तहत छूट हासिल है। सीनियर एडवोकेट राजू रामचंद्रन ने सुप्रीम कोर्ट में सीता सोरेन का पक्ष रखा। उन्होंने हाल ही में लोकसभा में बसपा सांसद दानिश अली के खिलाफ भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी के अपमानजनक बयान का जिक्र करते हुए कहा कि वोट या भाषण से जुड़ी किसी भी चीज के लिए अभियोजन से छूट, भले ही वह रिश्वत या साजिश हो, पूरी तरह होनी चाहिए।