– राकेश कुमार शर्मा
जयपुर। जिस तरह भगवान श्रीकृष्ण के तीनों विग्रह (श्री मदन मोहन जी, श्री गोपीनाथ जी और श्री गोविन्द देवजी) के निर्माण का इतिहास रोचक है, वैसे ही भगवान के विग्रहों को आततायी शासकों से सुरक्षित बचाए रखने और इन्हें पुर्न विराजित करने का इतिहास भी उतना ही प्रेरणादायी है। श्री गोविन्द देवजी, श्री गोपीनाथ जी और श्री मदन मोहन जी का विग्रह करीब पांच हजार साल प्राचीन माना जाता है। बज्रनाभ शासन की समाप्ति के बाद मथुरा मण्डल व अन्य प्रांतों पर यक्ष जाति का शासन रहा। यक्ष जाति के भय व उत्पाद के चलते पुजारियों ने तीनों विग्रह को भूमि में छिपा दिया। गुप्त शासक नृपति परम जो वैष्णव अनुयायी थे। इन्होंने भूमि में सुलाए गए स्थलों को खोजकर भगवान के विग्रहों को फिर से भव्य मंदिर बनाकर विराजित करवाया। फिर दसवीं शताब्दी में मुस्लिम शासक महमूद गजनवी के आक्रमण बढ़े तो फिर से भगवान श्रीकृष्ण के इन विग्रहों को धरती में छिपाकर उस जगह पर संकेत चिन्ह अंकित कर दिए। कई सालों तक मुस्लिम शासन रहने के कारण पुजारी और भक्त इन विग्रह के बारे में भूल गए। सोलहवीं सदी में ठाकुरजी के परम भक्त चैतन्यू महाप्रभु ने अपने दो शिष्यों रुप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को वृन्दावन को भेजकर भगवान श्रीकृष्ण के लीला स्थलों को खोजने को कहा। दोनों शिष्यों ने भगवान के लीला स्थलों को खोजा। इस दौरान ही भगवान श्रीगोविन्द देवजी ने रुप गोस्वामी को सपने में दर्शन दिए और उन्हें वृन्दावन के गोमा टीले पर उनके विग्रह को खोजने को कहा। सदियों से भूमि में छिपे भगवान के विग्रह को ढूंढकर रुप गोस्वामी ने एक कुटी में विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा की। मुगल शासक अकबर के सेनापति और आम्बेर के राजा मानसिंह ने इस मूर्ति की पूजा-अर्चना की। 1590 में वृन्दावन में लाल पत्थरों का एक सप्तखण्डी भव्य मंदिर बनाकर भगवान के विग्रह को यहां विराजित किया। मुगल साम्राज्य में इससे बड़ा देवालय नहीं बना। बाद में उड़ीसा से राधारानी का विग्रह श्री गोविन्द देवजी के साथ प्रतिष्ठित किया गया। मुगल शासक अकबर ने गौशाला के लिए भूमि दी, लेकिन मुगल शासक औरंगजेब ने गौशाला भूमि के पट्टे को रद्द कर ब्रजभूमि के सभी मंदिरों व मूर्तियों को तोडऩे का हुक्म दिया तो पुजारी शिवराम गोस्वामी व भक्तों ने श्री गोविन्द देवजी, राधारानी व अन्य विग्रहों को लेकर जंगल में जा छिपे। बाद में आम्बेर के मिर्जा राजा जयसिंह के पुत्र रामसिंह के संरक्षण में ये विग्रह भरतपुर के कामां में लाए गए। यहां राजा मानसिंह ने आमेर घाटी में गोविन्द देवजी के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा की। जो आज कनक वृन्दावन कहलाता है और यह प्राचीन गोविन्द देव जी का मंदिर भी है।
जयपुर बसने के बाद सवाई जयसिंह ने कनक वृंदावन से श्री राधा-गोविन्द के विग्रह को चन्द्रमहल के समीप जयनिवास उद्यान में बने सूर्य महल में प्रतिष्ठित करवाया। चैतन्य महाप्रभु की गौर-गोविन्द की लघु प्रतिमा को भी श्री गोविन्द देवजी के पास ही विराजित किया। श्री गोविन्ददेवजी की झांकी में दोनों तरफ दो सखियां खड़ी है। इनमें एक विशाखा सखी सवाई जयसिंह ने बनवाई थी। राधा-रानी की सेवा के लिए यह प्रतिमा बनवाई गई। दूसरी प्रतिमा सवाई प्रताप सिंह ने बनवाई। यह ललिता सखी है, जो उस समय भगवान श्री गोविन्ददेवजी की पान सेवा किया करती थी।
- जयपुर शासकों की बदौलत सुरक्षित रहे श्रीगोविन्ददेवजी, श्री गोपीनाथ जी, श्री मदन मोहन जी का विग्रह
उस सेविका के ठाकुर के प्रति भक्ति भाव को देखते हुए ही सवाई प्रताप सिंह ने उनकी प्रतिमा बनाकर विग्रह के पास प्रतिस्थापित की। भले ही इतिहास में और वर्तमान में भी गाहे-बगाहे आम्बेर-जयपुर राजवंश के राजाओं का मुगल शासकों से वैवाहिक संबंध और उनके साम्राज्य को बढ़ाने में सहयोग करने को लेकर आलोचनाएं होती रही है, लेकिन यह भी उतना ही सत्य और प्रमाणिक है कि मुगल शासक औरंगजेब के समय भगवान श्रीकृष्ण के तीनों विग्रहों समेत अन्य हिन्दु देवी-देवताओं की सुरक्षा में जयपुर राजाओं की महती भूमिका रही। तब भगवान श्रीगोविन्ददेवजी, श्री गोपीनाथ जी, श्री मदन मोहन जी का विग्रह तो जयपुर शासकों की बदौलत ही सुरक्षित रहे और पूरे मान-सम्मान से प्रतिस्थापित भी किए गए।