जयपुर। राजस्थान की राजधानी जयपुर को यूं तो गुलाबी नगरी के नाम से पहचान मिली हुई है। लेकिन इसे एक अन्य नाम छोटी काशी के तौर पर भी ख्याती मिली हुई है। इसके पीछे वजह भी अपने आप में अनूठी ही है। जयपुर में पुरावैभव के साथ-साथ प्राचीन मंदिरों का अपना एक अलग ही इतिहास ही रहा है।
धर्मपारायण नगरी होने से रियासत काल में यहां हर गली में भगवान कृष्ण के अलग-अलग नामों से मंदिरों की स्थापना हुई। इन मंदिरों की स्थापत्यकला हर किसी को बरबस ही अपनी और आकृर्षित करती नजर आती है। इन मंदिरों में कृष्ण जन्माष्टमी पर बड़े स्तर पर आयोजन होते थे जो आज भी बदस्तूर जारी हैं।
-1536 में हुआ प्राकट्य
जयपुर के आराध्य गोविंद देवजी मंदिर के इतिहास करीब 500 साल पुराना है। कभी राजघराने के आराध्य रहे गोविंद देवजी आज जन-जन के आराध्य बन गए हैं। गोविंद देवजी का प्राकट्य वर्ष 1536 में हुआ। विधिवत अभिषेक के बाद वृंदावन के गोमा टीला नामक स्थान पर चबूतरे पर रुप गोस्वामी एक कूटी में ही सेवा पूजा करने लगे। जब जयपुर नरेश सवाई मानसिंह ने उन्हें कुटी में विराजमान देखा तो वृंदावन में ही उनका भव्य मंदिर बनाने का संकल्प कर लिया। गोमा टीले से प्राकट्य होने के 17 साल बाद राधारानी को उड़ीसा से लाकर गोविंद के वामांग में विराजमान किया गया। बाद में जब औरंगजेब की हिंदूओं के मंदिरों के प्रति नीति सामने आई तो शिवराम गोस्वामी ने गोविंद देवजी व राधारानी की प्रतिमा को वृंदावन से जयपुर के गोनेर रोड स्थित रुपाहेड़ी गांव में स्थापित किया। वहां से विग्रह को कनक वृंदावन लाया गया और राधारानी को गोविंद देवजी के साथ विराजित किया गया। 1735 में सवाई जयसिंह ने विग्रहों को सूरज महल में प्रतिष्ठित कराया। जहां 1739 में गोविंद देवजी का वर्तमान मंदिर में पाटोत्सव हुआ। गोविंद देवीजी की झांकी में ललिता व विशाखा दो संखियां खड़ी है।