jaipur. कबीर के लिए उनका ‘करघा’ ही जीवन है क्योंकि वह ज्ञान और कर्म का उपदेश देता है। इसी चरखे पर कबीर ने ‘झीनी झीनी-सी चदरिया’ बुनी थी। कबीर की पढ़ाई बाहरी नहीं भीतरी थी। कबीर ज्ञान, विवेक और अनुभव की ऐसी अनूठी सरिता है, जिसने आम जनता से संवाद के पुल बांधकर ऐसा साहित्य रचा, जो सुदीर्घ काल से हमें आप्यायित और सम्मोहित किए हुए है। सूर्य की रश्मियों जैसी ऊष्मा वाला वह साहित्य आजकल के खद्योत-बौने चिंतकों से कहीं अधिक आधुनिक और क्रांतिकारी है। यदि कबीर को हम चलता-फिरता उपलब्ध कर पाएं तो हम मिल पाएंगे मनुष्य के जन्म से ही श्रेष्ठ होने का शंखनाद करने वाले एक अमर संत सेे, जिन्होंने मनुष्य की जन्म सत्ता के बजाय उसकी व्यक्ति सत्ता को महत्त्व दिया। मनुष्य होने के आधार पर ‘निर्गुण ब्रह्म’ को खोज लेने का रास्ता दिखा देने वाले कबीर मानव के जन्म से ही श्रेष्ठ होने के सबसे मजबूत उदाहरण हैं, जो उद्घोषणा सहस्राब्दियों पहले महाभारत ने की थी – न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किञ्चित्। मानव स्वातंत्र्य के संभवतः पहले मुखर प्रतिनिधि कबीर थे।
उन्होंने संत साहित्य को समाज साहित्य में ऐसा बदला कि वह शोषित और वंचितों की आवाज ही नहीं बन गया बल्कि वेदांत का गंभीर तत्त्व आम आदमी के बोलचाल की भाषा में बदल गया। बिना आखर पढ़े तब का चलता-फिरता आदमी दर्शनशास्त्र की जटिल बातों को कबीर की भाषा में दोहराने लगा – घूंघट के पट खोल रे, तोहे पिया मिलेंगे! उत्तर भारत के मध्यकालीन भक्ति आंदोलन में राम भक्ति की निर्गुण शाखा का आश्रय लेकर कबीर ने जिस तरह तत्कालीन जड समाज को झकझोरा, वह आज तक बेमिसाल है।
संत साहित्य के इतिहास में कबीर की स्थिति विलक्षण है। कबीर की मिथक और किंवदंतियों से भरी उपस्थिति जितनी महिमामयी है, प्रामाणिक-ऐतिहासिक स्थिति उतनी ही धुंधली। उन्हें सदियों से हिंदी साहित्य में शिखर संत-कवि होने का गौरव प्राप्त है। पर हिंदी साहित्य के साथ ही संत साहित्य में आज भी कबीर का जन्म, उनका व्यक्तित्व तथा साहित्य और रामानंद संप्रदाय के भीतर और बाहर उनकी उपस्थिति कबीर पर चर्चा के सदाबहार विषय हैं। आश्चर्य है कि कबीर का जन्म भी किंवदंतियों पर गढ़ा है तो उनका शरीर छोडऩा भी ठीक वैसा ही है। कबीर काशी के लहरताला तालाब पर नीरू नाम के मुस्लिम जुलाहे को मिले। नीमा उसकी नि:संतान पत्नी थी।
इस किंवदंती का परिणाम यह निकला कि कबीर थे कुछ ‘ओर’ पर मान कुछ ‘ओर’ लिए गए। फिर भी उनकी एक निर्विवादित जन्मतिथि मानी गई, ज्येष्ठ पूर्णिमा। इस पर तो विवाद है कि कबीर कहां जन्में और पले-बढ़े। कुछ विद्वान उन्हें पंजाब में जन्मा मानते हैं। दूसरे विद्वानों का मत है कि कबीर काशी में पैदा हुए। जिस बात पर कोई विवाद नहीं है, वह यह है कि वे काशी के पंचगंगा घाट पर बने ‘श्रीमठ’ में रहने वाले स्वामी रामानंद के शिष्य थे। स्वामी रामानंद उस कालखंड में भक्ति के सबसे बड़े नायक थे। संत साहित्य की सारी परंपराएं इस बात का पुरजोर समर्थन करती है कि कबीर स्वामी रामानंद के शिष्य थे। कबीर ने खुद स्वीकारा है कि रामानंद ने उन्हें काशी में चेताया था – हम कासी में प्रगट भए हैं, रामानंद चेताये।
स्वामी रामानंद ने कबीर को कैसे चेताया और कितना चेताया, इसका कोई लेखा-जोखा किसी के पास नहीं है। लेकिन यह जरूर है कि कबीर की भक्ति संवेदना में गुरु का स्थान गोविंद से भी ज्यादा है। इसीलिए कबीर जब कभी स्वामी रामानंद का नाम लेते हैं तो बड़े गौरव और श्रद्धा से लेते हैं – सदगुरु के परताप ते मिटि गयो सब दुख दंद। कहै कबीर दुविधा मिटी गुरु मिल्या रामानंद।।
सत्रहवीं सदी में हुए फ़ारसी विद्वान् मुहसिन फनी ने अपनी पुस्तक ‘दबिस्ताँ-ए-मजाहिब’ में लिखा है, ‘कबीर जन्म से मुसलमान थे पर वे स्वामी रामानंद के शिष्य बनना चाहते थे क्योंकि रामानंद ‘राम’ को जानते थे। एक बार काशी में पंचगंगा घाट की सीढिय़ों पर रामानंद ने कबीर को देखा और ‘राम-राम’ बोले। कबीर ने भी ‘राम-राम’ बोलकर प्रत्युत्तर दिया और ‘राम’ से अपना सनातन संबंध जोड़ लिया।’
कबीर ने जो लिखा और कहा, उसके चार पुराने लिखित साक्ष्य मौजूद हैं। सबसे पुराना रूप मिलता है सिखों के पवित्र ‘गुरुग्रंथ साहिब’ में। दूसरा संत दादू दयाल की आज्ञा से कबीर, रैदास, नानक, नामदेव और दादू की वाणी के तैयार किए ‘पंचवाणी’ संकलन में। तीसरा रूप है दादू के प्रमुख शिष्य रज्जबदास द्वारा संकलित संतवाणी ‘सर्वंगी’ में और चौथा है कबीर पंथ का अपना अभिलेख ‘बीजक’। अनेक प्रकार के पाठ भेदों और सांप्रदायिक छवि का संबंध कबीर से बनता और बदलता रहा है। लेकिन इन चारों के बीच मिले साहित्य में कबीर में जहां एक ओर तड़प और आंतरिक अकेलापन है वहीं दूसरी ओर अंदर की मस्ती का ऐसा ज्वार भी है जो पूरी दुनिया को अपने भीतर समेट लेता है। एक ओर अपनी भीतरी यात्रा में इतनी एकाग्रता है कि बाहर से कोई संबंध ही नहीं है। दूसरी ओर गंदगी भरे अपने आसपास के समाज को परिवर्तित करने का पूरा अभियान है। तभी तो कबीर में प्यार और रोष, दोनों का विरोधाभास है। कभी अपने ‘राम’ की प्रेमिका बनकर उनसे मिलन की तीव्र उत्कंठा तो कभी संसार को माया मानकर उसे ‘महाठगिनी’ कहकर उसकी भारी भर्त्सना।
जनश्रुति के अनुसार कबीर के एक पुत्र कमाल और एक पुत्री कमाली थी। पत्नी का नाम लोई था। कबीर के लिए उनका ‘करघा’ ही जीवन है क्योंकि वह ज्ञान और कर्म का उपदेश देता है। इसी चरखे पर कबीर ने ‘झीनी झीनी-सी चदरिया’ बुनी थी। कबीर की पढ़ाई बाहरी नहीं भीतरी थी। वे कहते हैं – मसि कागद छूयो नहिं कलम गहि नहीं हाथ। उन्होंने तत्त्व देखा और कहा। वे किसी कागजी पढाई से नहीं बल्कि आँखों से देखकर अपने अनुभव को बांटते हैं – और कहै कागज की लेखी कबीरा कहे आँखों की देखी।
वैसे तो पूरा रामभक्ति साहित्य सगुण उपासना को समर्पित है। वह नाम-रूप-लीला-धाम का भक्ति साहित्य है। परंतु कबीर ने अपने राम को निर्गुण में खोजा। कबीर के राम निर्गुण हैं। वे अकाल, अजन्मा, अनाम और अरूप हैं। वे बिना कान के सुनते हैं। बिना पांव के चलते हैं और बिना हाथों के काम करते हैं। उन्हें साधक राम और रहीम के नाम से जानते हैं। पर कबीर ने उस ब्रह्म को अपनी तरफ से एक प्यारा नाम ‘साहब’ दिया। वे कहते हैं कि निर्गुण राम भजहु रे भाई, अबिगत की गति लखी न जाई अर्थात निर्गुण राम को भजो, जिसकी गति कोई नहीं जानता।
एकेश्वरवाद कबीर को स्वीकार है। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के अनेक अमर संत कबीर के समकालीन थे। इनमें अनेक उनके गुरु स्वामी रामानंद के ही शिष्य हैं। रैदास, धन्ना, सैन और पीपा उनके साथ रहे। अनेक परचइयों में कबीर के साथ इनका संवाद दर्ज है। इन सब संतों की भक्ति संवेदनाओं में कबीर का खास स्थान है। यह विडंबना है कि संत साहित्य में निर्गुण तथा सगुण कवियों के बीच देखने की कोशिश बहुत नहीं हुई। जबकि ये दोनों ही ईश्वर के राम नाम के आस्वादक हैं। इधर सगुण भक्त सूरदास उस सरोवर की ओर चल रहे हैं, जहां रात नहीं होती तो उधर कबीर भी ‘हंसा नहाए मानसरोवर, ताल-तलैया क्यूं डोले’ से उसी मानसरोवर की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। यही कारण है कि उच्च आदर्श होने के नाते परपंरा ने इन सब को कवि नहीं बल्कि संत माना। मीरा, तुलसीदास, सूरदास और नरसी में सगुण-निर्गुण अधिक संश्लिष्ट है। वहीं कबीर, नानक, दादू और रामचरण रामस्नेही जैसे संत-कवि भी ‘राम’ नाम के सहारे ही परमात्मा तक अपनी पहुंच बना रहे हैं। राम, गोविंद, हरि और कृष्ण ही इनके संबोध्य नाम हैं। हाँ, इनका अनुभव जरूर अपना अलग-अलग है। कबीर कहते हैं – ऐसा कोई ना मिला राम भगति का मीत। तन मन सौंपे मिरग ज्यों सुन बधिक को गीत।। ऐसी अभिव्यक्ति राम में डूबा हुआ कोई संपूर्ण प्रेमी ही कर सकता है, जिसकी अनुभूति का पाट चौड़ा हो और गहराई की कहीं कोई थाह ही न हो। राम के साथ कबीर के सारे संबंध हैं। महात्मा कबीर को ही भक्ति को चारों ओर फैलाने का यश मिला हुआ है- भक्ति द्राविड ऊपजी ल्याये रामानंद। परगट करी कबीर ने सप्त द्वीप नव खंड।।
शास्त्री कोसलेन्द्रदास
असिस्टेंट प्रोफेसर
जगद्गुरु रामानंदाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर