नयी दिल्ली। अगले कुछ दिनों में राहुल गांधी की ओर से कांग्रेस की कमान संभालना लगभग तय माने जाने के बीच राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती पार्टी को भारतीय राजनीति में प्रासंगिक बनाये रखना है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल की ओर से संगठन को मजबूती देने और धर्मनिरपेक्षता जैसे मुद्दों पर वैचारिक दुविधा को दूर किये बिना वह न तो मतदाताओं के असंतोष को वोट में तब्दील कर पायेंगे और न ही विपक्षी एकता को परवान चढ़ा पायेंगे। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि एक के बाद एक चुनावों में कांग्रेस को मिल रही हार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसे ‘‘करिश्माई नेता एवं प्रभावशाली वक्ता’’ से मुकाबला होने के कारण ‘‘एक विश्वसनीय नेता’’ के रूप में खुद को पेश करना राहुल के लिए आसान नहीं होगा। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय संबंध विभाग के पूर्व प्राध्यापक पुष्पेश पंत ने इस सवाल पर ‘भाषा’ से कहा, ‘‘राहुल गांधी के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती अपने को एक विश्वसनीय नेता के रूप में साबित करने की है जिसमें वह पिछले 15 सालों से विफल रहे हैं।’’ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा पार्टी की कमान संभाले जाने की परिस्थितयों से तुलना करते हुए वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने कहा कि सोनिया ने जब कमान संभाली तो पार्टी बिखर रही थी। उनके विदेशी मूल के होने का मुद्दा था। कई वरिष्ठ नेताओं को वह रास नहीं आ रही थीं। पर उन्होंने पार्टी को एकजुट किया और उनके नेतृत्व में पार्टी ने दो बार लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज की और गठबंधन की सरकार बनाई। उन्होंने कहा, ‘‘राहुल के सामने सबसे बड़ी समस्या है कि पार्टी के चुनावी परिणामों में लगातार जो गिरावट आ रही है, उसे कैसे थामा जाए? साथ ही उनके सामने एक ऐसी बड़ी शख्सियत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं जो एक करिश्माई नेता हैं एवं प्रभावशाली वक्ता हैं।’’ उन्होंने कहा कि आप यदि गुजरात जाएं तो देखेंगे कि भाजपा को लेकर लोगों में असंतोष तो है किन्तु मोदी को लेकर नहीं है। ऐसे में कांग्रेस को प्रासंगिक बनाये रखना, उसमें फिर से प्राण फूंकना सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। संगठन मजबूत होना इसलिए जरूरी है क्योंकि उसी से लोगों के असंतोष को वोट में तब्दील किया जा सकता है।
नीरजा का मानना है कि राहुल की असली चुनौती गुजरात ही नहीं है। अगले साल कर्नाटक तथा हिन्दी भाषी तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव होने वाले हैं। इसमें पार्टी कैसा प्रदर्शन करती है, इसके आधार पर उनको तौला जाएगा। दिक्कत वाली बात है कि पार्टी के पास तैयारी के लिए अधिक समय नहीं है। इन चुनावों में पार्टी के विभिन्न धड़ों को कैसे एकजुट रखा जाए, यह भी देखने वाली बात होगी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल की तुलना को राजनीतिक टिप्पणीकार एवं वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई सही नहीं मानते। उनके अनुसार एक ही परिवार में भी दो व्यक्तियों के काम करने का ढंग अलग अलग होता है। यहां तक कि प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एवं उनकी पुत्री एवं पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक के काम करने के तरीके में बहुत अंतर था। इंदिरा एवं उनके पुत्र एवं पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के काम करने का तरीका भी अलग अलग था। उन्होंने कहा कि हमें राहुल गांधी को सोनिया, राजीव या इंदिरा गांधी के चश्मे से नहीं देखना चाहिए। कांग्रेस का यदि इतिहास देखा जाए तो संगठन के भीतर नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य विफल नहीं हुआ है। राहुल के समक्ष यही चुनौती है कि वह खुद को साबित करें और वह भी बहुत जल्दी । कांग्रेस, विशेषकर वरिष्ठ पीढ़ी, के नेताओं के बीच राहुल की स्वीकार्यता के बारे में पूछे जाने पर राजनीतिक विश्लेषक मोहन गुरूस्वामी ने बताया कि संगठन के भीतर राहुल की स्वीकार्यता को लेकर कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। ‘‘अहमद पटेल से लेकर दिग्विजय सिंह सहित सभी नेता उन्हें स्वीकार कर लेंगे।’’ कांग्रेस में यह परंपरा रही है कि एक परिवार का नाम आने पर सभी मान जाते हैं।