नई दिल्ली। आज देशभर मे दशहरे की धूम है लेकिन कांगड़ा जिले का एक स्थान ऐसा भी है, जहां न रावण जलाया जाता है और न ही कोई सोना बेच सकता है। यहां ऐसी धारणा है कि किसी ने रावण जलाया या दशहरा मनाया तो उसे भगवान शिव के क्रोध का सामना करना पड़ सकता है। यह स्थान है बैजनाथ। प्राचीन शिव मंदिर होने के कारण इस स्थान को शिवनगरी भी कहते है। यहां 12वी शताब्दी मे शिखराकार शैली मे निर्मित भगवान शिव का मंदिर है जबकि यहां स्थापित शिवलिंग बेहद पुरानी है।
माना जाता है कि यह वही शिवलिंग है, जिसे लंकापति रावण हिमालय मे भगवान शिव की तपस्या करने के बाद लंका ले जा रहा था, लेकिन एक शर्त पूरी न कर पाने के कारण यह यही स्थापित हो गया था। यहां सालो से दशहरा नही जलाया जाता था। 1965 मे बैजनाथ भजन मंडली का गठन हुआ। इसमे शामिल कुछ बुजुर्ग व युवाओ ने उस समय मंदिर के ठीक सामने मैदान मे दशहरा मनाने की प्रथा शुरू की लेकिन भजन मंडली के अध्यक्ष की उसके कुछ समय बाद मौत हो गई। इस आयोजन मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कुछ लोगो को मौत व भारी हानि का सामना करना पड़ा। 1969 मे यहां दशहरा मनाना ही बंद कर दिया गया। इसके पीछे कुछ विद्वानो का तर्क था कि लंकापति रावण भगवान शिव के परम भक्त थे और कोई भी भक्त को इस तरह से जलता नही देख सकता। न यहां दशहरा उससे पहले मनाया जाता था और न ही इन चार सालो के बाद कभी मनाया गया। बैजनाथ मे मंदिर से जुड़ा एक और रहस्य भी है।
बैजनाथ मे एक भी सुनार की दुकान नही है जबकि इससे एक किमी की दूरी पर पपरोला मे सौ से अधिक सुनारो की दुकाने है। बैजनाथ मे भी कुछ साल पहले एक सुनार ने दुकान खोली थी, लेकिन वह दुकान नही चल सकी। काफी साल पहले भी दुकान खोली थी, लेकिन वह आग की भेट चढ़ गई। ऐसा यहां क्यो है, इस बारे आज तक कोई नही जानता। यही माना जाता है कि इसका संबंध कही न कही रावण की लंका के साथ ही रहा है।
मंदिर का निर्माण 12वी शताब्दी मे हुआ। वर्ष 1905 मे कांगड़ा मे 7.8 तीव्रता के भूकंप मे सब कुछ तबाह हो गया था, लेकिन यह मंदिर बच गया था। मंदिर मे भगवान श्री गणेश सहित कई ऐसी मूर्तियां है, जो आज तक किसी अन्य मंदिर या स्थान मे नही हैं। बैजनाथ मंदिर मे भगवान श्रीगणेश की मूर्ति के समीप आने वाला भूरे रंग का एक चूहा आज भी कौतुहल का विषय है। बैजनाथ मंदिर की कलाशैली अपने आप मे अनोखी है।