– राकेश कुमार शर्मा

जयपुर।  जयपुर  में 600 से अधिक छोटे-बड़े शिवालय हैं, जिनकी स्थापना के पीछे कोई न कोई रोचक कथा छुपी है। हर गली-हर रास्ते में शिवालय होने से इसे छोटी काशी के नाम से भी जाना जाता है, लेकिन चौड़ा रास्ता स्थित बाबा ताड़केश्वर नाथ का शिव मंदिर जयपुरवासियों के लिए आस्था का प्रमुख केन्द्र है। इसके प्रति लोगों में खासी मान्यता भी है। यहीं वजह से गोविन्ददेवजी के साथ ताड़केश्वर मंदिर में भी सुबह से ही भक्तों का दर्शनों के लिए तांता लगा रहता है। ताड़केश्वर महादेव मंदिर हमेशा से ही भोले बाबा के जयकारों से गूंजता रहा है। इस मंदिर के इतिहास के भी अनोखी घटना है। कहा जाता है कि जयपुर बसने से पूर्व यहां बियावान जंगल था। एक ग्वाले की गाय यहां ताड़ के पेड़ के नीचे आती थी तो उसके थनों से स्वत: ही दूध निकलने लगता था। इससे ग्वाला भी अचंभित था। एक दिन शिवजी ने ग्वाले को स्वप्न में दर्शन दिए और गाय के थनों से निकलने वाले स्थान पर शिवलिंग के बारे में बताया। ग्वाले ने जब जमीन खोदी तो उसमें से शिवलिंग निकला। जिस स्थान पर शिवलिंग निकला वहां ताड़ के काफी पेड़ थे, इसलिए इसे ताड़केश्वर नाथ से पूजने लगे भक्तगण। इस जंगल में ही कनफडिया साधुओं का वास रहता था। शुरुआत में कई वर्षों तक शिव लिंग की पूजा अर्चना का जिम्मा कनफडिया साधुओं के जिम्मे रहा। ताड़केश्वर नाथ मंदिर के अहाते में विराजे काशी विश्वनाथ (विश्वेश्वर महादेव) भी भक्तों के आराध्य हैं। ऐसी मान्यता है कि विश्वेश्वर महादेव के दर्शनों के बिना ताड़केश्वर महादेव के दर्शन पूरे नहीं माने जाते। यही कारण है कि ताड़केश्वरजी के साथ इनके भी भोग अर्पित किया जाता है।जयपुर निर्माण के समय किशनराम बंगाली जो महाराजा जयसिंह के मंत्री थे, ताड़केश्वर मंदिर में नित्य पूजा के लिए आते थे। शिव के प्रति अगाध भक्ति के चलते उनके मन में विशाल शिवालय बनने की इच्छा जाग्रत हुई। इसके लिए अपने भांजे व राज्य के दीवान शिल्पकार विद्याधर से मंदिर की रूपरेखा तैयार करवाई। मंदिर का वास्तुशास्त्र के अनुरूप निर्माण करवाकर इसमें शिव परिवार के साथ अन्य देवी-देवताओं की स्थापना करवाई। विक्रम संवत 1784 में बसंत पंचमी पर शिव परिवार की तांत्रिक विधि से प्राण प्रतिष्ठा हुई थी। मान्यता है कि इनके दर्शन से काशी विश्वनाथ के दर्शनों का जितना पुण्य मिलता है, जिसके चलते इन्हें लोग काशी विश्वनाथ के नाम से जानने लगे। प्राण प्रतिष्ठा के बाद किशनराम बंगाली व विद्याधर दीवान ने मंदिर को पुजारी पांचायण के वंशज गंगाराम पाराशर को सेवा पूजा की जिम्मेदारी दे दी। मंदिर में मुख्य शिवलिंग काले पत्थर का बना है। इसका व्यास 9 इंच है। मंदिर का फर्श संगमरमर का है। चौक के पास ही जगमोहन सभा हॉल है। इस हॉल में चार विशाल घंटे हैं, जिनमें प्रत्येक का वजन 125 किलोग्राम है। यहां एक पीतल का विशाल नंदी बैल है और गणेशजी की भी प्रतिमा है, जिनकी सूंड बाईं ओर है। मंदिर की छत पर प्राचीन धार्मिक चित्र अंकित हैं। सावन में तो यहां श्रद्धालुओं का मेला लग जाता है।

जयपुर शासकों के शिव भक्ति का प्रतीक

कहा जाता है कछवाह वंश के राजा वैष्णव भक्ति करते थे, हालांकि उनकी कुलदेवी शिला माता रही। इस तरह उन्हें शक्ति उपासक माना जाता है। उन्होंने चंद्रमहल के सामने भगवान गोविंददेवजी को विराजित किया और गोविंद महाराज को जयपुर का शासक घोषित किया। जयपुर शासक भगवान शिव के भी उपासक रहे। जयपुर स्थापना के समय परकोटे में तीन शिव मंदिरों की स्थापना की गई। राजपरिवार के सदस्यों का बाबा ताडकेश्वर नाथ के प्रति गहरी आस्था थी। खासकर महाराजा सवाई रामसिंह की। वे घंटों शिव उपासना में मग्न रहते थे। ताडक बाबा का मंदिर राजपरिवार की शैव भक्ति का प्रतीक भी। मंदिर दो मंजिला भव्य हवेलीनुमा बनावट में है। जिसके बीच में चौक और चारों ओर गलियारों तिबारियों और भवनों में विभिन्न मंदिर बने हुए हैं। मंदिर में खास आकर्षण है चौक में शिव के वाहन नंदी की विशाल पीतल की प्रतिमा। इसी प्रतिमा के आसपास बैठकर भक्त रूद्र मंत्रों का जाप करते हैं। अहाते में शिव पंचायत पर जलाभिषेक के लिए सोमवार को लम्बी कतारें लगी होती है। श्रावण मास में यहां भव्य सजावट की जाती है और हजारों की संख्या में कावडिये गलताजी से जल लाकर शिव का अभिषेक करते हैं। श्रावण मास में ही सवा लाख बिल्व पत्रों की झांकी सजाई जाती है और भण्डारा लगता है। श्री ताड़केश्वर नाथ सवा लाख बिल्व पत्र महोत्सव समिति के अध्यक्ष रामेश्वर प्रसाद बियानी और सचिव राधेश्याम शर्मा ने बताया कि करीब पांच दशक से सवा लाख बिल्व पत्र चढ़ाने और उसकी झांकी का रिवाज लगातार चलता आ रहा है। जयपुर में पहली बार कांवड यात्रा भी ताड़केश्वर मंदिर से ही शुरु हुई, जो बाद में दूसरे शिवालयों से होने लगी। हजारों कांवडिये बम बोल ताड़क बोल के जयकारों के साथ गलताजी से पवित्र जल लेकर ताड़केश्वर नाथ बाबा का जलाभिषेक करते हैं। जलाभिषेक के दौरान ही दर्जनों पण्डित रुद्रपाठ करते हैं। इस दिन महिलाओं की कलश-यात्रा भी निकलती है।

अखण्ड ज्योत है चमत्कारिक

ताड़केश्वर नाथ बाबा के अखण्ड ज्योत जलती रहती है। देसी घी की इस ज्योत के प्रति लोगों में मान्यता है कि जो भी देसी घी डालकर भोले बाबा से अपनी मनोकामना मांगता है, वो पूरी होती है। शिव मंदिर की स्थापना के समय से ही यह अखण्ड ज्योत जलती आ रही है। पहले मंदिर परिसर और बाहर की तरफ दो कुएं भी थे, जिनके मीठे पानी से लोग अपनी प्यास बुझाते थे और भगवान शिवजी को भी जलाभिषेक करते थे। बाद में कुऐं सूखने से इन्हें पाट दिया। पहले हालांकि इस मंदिर का नामकरण ताड़ के पेड़ों पर हुआ है लेकिन वर्तमान में इस प्रजाति का एक भी पेड़ यहां नहीं है। मंदिर परिसर में एक पीपली और बरगद का पेड़ है। मंदिर के पुजारी बताते हैं कि रियासत काल में जयपुर रियासत के महाराजा के निधन के बाद होने वाला महात्मी का दस्तूर (पगड़ी व रंग की परंपरा) मंदिर में ही संपन्न होता था। रस्म के समय उत्तराधिकारी के साथ रियासत के बड़े-बड़े राजा एवं जागीरदार यहां आते थे।

चमत्कार दिखाया तो मुरीद हुए

ऐसी चर्चा है कि  18वीं सदी में जयपुर रियासत के एक राजा एक मुस्लिम तांत्रिक के बहकावे में आकर हिन्दु धर्म से विमुख होने लगे। इससे राज परिवार और उनके मंत्रियों को चिंता हुई तो इन्होंने उस तांत्रिक के चंगुल से बचाने के लिए हिन्दु धर्म के तांत्रिकों से सम्पर्क साधा, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। तंत्र-विद्याओं से राजा इतने प्रभावित थे कि वे मुस्लिम धर्म भी ग्रहण करने की सोचने लगे। वर्तमान में ताड़केश्वर नाथ मंदिर के पुजारी परिवार के पूर्वज जो खुद भी बड़े तांत्रिक और सिद्ध महात्मा थे। उन्होंने मुस्लिम तांत्रिक के चंगुल से ना केवल जयपुर राजा को मुक्त करवाया, बल्कि अपनी तंत्र शक्ति से उसकी सारी काली विद्याओं में पटखनी देकर राजा को काफी प्रभावित किया। बताया जाता है कि इससे प्रसन्न होकर राजा ने ताड़केश्वर नाथ बाबा मंदिर की सेवा-पूजा का जिम्मा पाराशर परिवार के उन महात्मा को सौंपा और उनके वंशज ही आज भी मंदिर में पूजा अर्चना कर रहे हैं। उनके रहने के लिए मंदिर से सटकर हवेलियां भी बनवाई।

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