-बाल मुकुन्द ओझा
मोबाइल बच्चों का दोस्त है या दुश्मन। बिना विलंब किए अभिभावकों को इस पर गहनता से मंथन की जरुरत है। हाल ही में प्रयागराज में मोबाइल को लेकर ऐसी घटना सामने आई जो किसी भी पेरेंट को सोचने पर मजबूर कर देगी। 9वीं कक्षा की छात्रा को जब मोबाइल पर गेम खेलते देखा तो पिता ने डांट दिया। ऐसे में बेटी ने रात होते ही अपने कमरे में जाकर फांसी लगा ली। यह ऐसा कोई पहला मामला नहीं है। देश के हर कोने से ऐसे मामले अक्सर सुर्खियों में आते रहते हैं। आजकल मोबाइल का ज्यादा इस्तेमाल बच्चों को इंटरनेट एडिक्शन की तरफ ले जा रहा है। इस तरह के एडिक्शन से मानसिक बीमारियां पैदा होती हैं और ऐसे में बच्चे कोई न कोई गलत कदम उठा लेते हैं। आजकल के बच्चे इंटरनेट लवर हो गए हैं। इनका बचपन रचनात्मक कार्यों की जगह डेटा के जंगल में गुम हो रहा है। पिछले कई सालों में सूचना तकनीक ने जिस तरह से तरक्की की है, इसने मानव जीवन पर गहरा प्रभाव डाला है बल्कि एक तरह से इसने जीवनशैली को ही बदल डाला है। बच्चे और युवा एक पल भी स्मार्टफोन से खुद को अलग रखना गंवारा नहीं समझते। इनमें हर समय एक तरह का नशा सा सवार रहता है। वैज्ञानिक भाषा में इसे इंटरनेट एडिक्शन डिस्ऑर्डर कहा गया है।
अपने बच्चों को मोबाइल और कंप्यूटर पर गेम खेलते अनेक माता-पिता बहुत खुश होते हैं। वे दूसरों को बड़े गर्व के साथ यह बताते तनिक भी नहीं हिचकते की उनका बेटा डिजिटल दुनियां के नए जमाने के साथ दौड़ रहा है। वे बड़े खुशी से बताते हैं कि वह मोबाइल पर फोटो निकाल लेता है। मैसेज भेज देता है। व्हाट्सप पर बात कर लेता है और फोटो, वीडियो शेयर कर लेता है। यहाँ तक की गूगल पर कुछ भी खोज लेता है। लेकिन शायद वह इस बात से अनजान है कि जिसे वह बच्चे की स्मार्टनेस समझ रहे हैं वह उसके विकास में बाधा भी बन सकता है। विशेषज्ञ मानते है कि इलेक्ट्रॉनिक गजेट और कंप्यूटर का अत्यधिक प्रयोग बच्चों के लिए अच्छा नहीं है। इससे उनमें संवादहीनता और चिड़चिड़ेपन की प्रवृत्ति बढ़ती है।
मौजूदा दौर में बच्चों में खेलकूद का स्थान इंटरनेट ने ले लिया है। इसका सीधा प्रभाव बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ा है। शहरों के साथ अब गांवों में भी मोबाइल की पहुँच होने से बच्चों में इंटरनेट की लत बढ़ गई है। इससे उनमें संवादहीनता का खतरा बढ़ रहा है। बच्चे के ऐसे व्यवहार को अनदेखा करने की जगह इस पर सजग और सावधान होने की जरूरत है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि इससे बच्चों का स्वाभाविक विकास बुरा प्रभाव पड़ता है।
एक अभिभावक का कहना है उसका बेटा स्कूल से आते ही कंप्यूटर पर बैठ जाता है, कई आवाज लगाने पर भी हिलता तक नहीं। बाहर घूमने की जगह उनका बेटा कंप्यूटर पर व्यस्त रहता है, लेकिन अब उसके व्यवहार पर चिंता होने लगी है। वह किसी से बात करना तक पसंद नहीं करता, ज्यादा कुछ बोलों तो चिढ़ जाता है या चिल्लाकर जवाब देता है। एक दूसरा अभिभावक अपनी बेटी के व्यवहार से चिंतित है। वह कहती हैं कि अभी आठवीं कक्षा में ही है, लेकिन उसके अंदर इस उम्र के बच्चों सी चपलता और चंचलता नहीं है। काफी कम बोलती है। इंटरनेट सर्फिग में उसका खाली समय बीतता है। देश में इंटरनेट के तेजी से बढ़ते इस्तेमाल में बचपन खोता जा रहा है जिसकी परवाह न सरकार को है और न ही समाज इससे चिंतित है। ऐसा लगता है जैसे गैर जरुरी मुद्दे हम पर हावी होते जारहे है और वास्तविक समस्याओं से हम अपना मुंह मोड़ रहे है। यदि यह यूँ ही चलता रहा तो हम बचपन को बर्बादी की कगार पर पहुंचा देंगे। देश के साथ यह एक बड़ी नाइंसाफी होगी जिसकी कल्पना भी हमें नहीं है। जब से इंटरनेट हमारे जीवन में आया है तबसे बच्चे से बुजुर्ग तक आभासी दुनियां में खो गए है। हम यहाँ बचपन की बात करना चाहते है। देखा जाता है पांच साल का बच्चा भी आँख खोलते ही मोबाइल पर लपकता है। पहले बड़े इसे अपने काम के लिए करते थे। अब बच्चे भी इंटरनेट के शौकीन होते जा रहे हैं। बाजार ने उनके लिए भी इंटरनेट पर इतना कुछ दे दिया है कि वह पढ़ने के अलावा बहुत कुछ इंटरनेट पर करते रहे हैं। पेरेंट्स को बच्चों की ऐसी गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए और समय रहते उनकी ऐसी आदत को पॉजेटिव तरीके से दूर करना चाहिए।