जयपुर। जयपुर राजपरिवार के कछवाहा वंश की आराध्य देवी रही शिला माता जयपुर की कुलदेवी है। आजादी के बाद शिला माता मंदिर को आम जनता के दर्शनार्थ खोल दिया गया, हालांकि आजादी से पहले भी मंदिर खुला हुआ था, लेकिन कई तरह की बंदिशें भी थी। आजादी के बाद जयपुरवासियों के लिए यह मंदिर प्रमुख शक्तिपीठ बन गया। नवरात्रों में लाखों भक्त दर्शनों के लिए आते हैं। मंदिर की बड़ी महिमा है। कहा जाता है कि आम्बेर रियासत के प्रतापी शासक राजा मानसिंह प्रथम पर माता की असीम कृपा रही। शिला माता के आशीर्वाद से ही मुगल शासक अकबर के प्रधान सेनापति रहते हुए राजा मानसिंह ने अस्सी से अधिक लड़ाईयां जीतीं। तभी से जयपुर राजवंश के शासकों ने माता को ही शासक मानकर राज्य किया।
चैत्र व अश्विन नवरात्र में तो माता के दर्शनों के लिए लंबी कतारें लगती हैं और छठ के दिन मेला भरता है। जयपुर के प्राचीन प्रमुख मंदिरों में शुमार इस शक्तिपीठ की प्रतिस्थापना 15वीं शताब्दी में तत्कालीन आम्बेर के शासक राजा मानसिंह प्रथम ने की। मंदिर का मुख्य द्वार चांदी का बना हुआ है। इस पर नवदुर्गा शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री उत्कीर्ण है। दस महाविद्याओं के रूप में काली, तारा, षोडशी, भुनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुर, भैंरवी, धूमावती, बगुलामुखी, मातंगी और कमला चित्रित है। दरवाजे के ऊपर लाल पत्थर की गणेशजी की मूर्ति प्रतिष्ठित है। द्वार के सामने चांदी का नगाड़ा रखा हुआ है। प्रवेश द्वार के पास दायीं ओर महालक्ष्मी एवं बायीं ओर महाकाली के चित्र उत्कीर्ण है।
मंदिर में विराजित शिला माता महिषासुर मर्दिनी के रूप में प्रतिष्ठित है। मूर्ति वस्त्रों और पुष्पों से आच्छादित रहती है। माता का मुख और हाथ ही दिखाई देते हैं। महिषासुरमर्दिनी के रूप में शिला देवी महिषासुर को एक पैर से दबाकर दाहिने हाथ के मां हिंगलाज संग शिलादेवी त्रिशूल मार रही है। इस मूर्ति के ऊपरी भाग में बाएं से दाएं तक अपने वाहनों पर आरुढ गणेश, ब्रह्मा, शिव, विष्णु व कार्तिकेय की मूर्तियां उत्कीर्ण है। शिलादेवी की दाहिनी भुजाओं में खडग, चक्र, त्रिशूल, तीर तथा बाई भुजाओं में ढाल, अभयमुद्रा, मुण्ड और धनुष उत्कीर्ण है। खास बात यह है कि यहां हिंगलाज माता की भी मूर्ति है, जो कम ही भक्तों को पता है। शिलादेवी के साथ मां हिंगलाज भी उतनी ही पूजित है, जितनी माता शिलादेवी। बहुत कम शक्तिपीठ में मां हिंगलाज की प्रतिमा है। दायीं ओर गणेश जी की स्थानक मुद्रा में मूर्ति प्रतिष्ठित है। स्फटिक का शिवलिंग शिलादेवी के मंदिर में रखा हुआ है। इसके पीछे यंत्र रखा हुआ है। मंदिर के सामने के कक्ष में नवरात्रों में नवरात्र स्थापन की जाती है। सुबह छह बजे भोग लगने के बाद ही मंदिर के पट खुलते हैं। भक्त गुंजी व नारियल का प्रसाद चढ़ाते हैं। वर्ष दो बार चेत्र और आश्विन के नवरात्र में यह मेला भरता है। नवरात्र में विशेष श्रृंगार किया जाता है। पन्द्रहवीं शताब्दी से आज तक मंदिर में बंगाली ब्राह्मण परिवार सेवा-पूजा करता आ रहा है और इनके परिवार आमेर में ही निवास करते आ रहे हैं। एक पूरी कॉलोनी पुजारी परिवारों व उनके रिश्तेदारों की है।
-शिला रूप में मिली तो कहलाई शिला देवी
कहा जाता है कि शिला माता की प्रतिमा एक शिला के रूप में मिली थी। 1580 ईस्वी में इस शिला को आम्बेर के शासक राजा मानसिंह प्रथम बंगाल के जसोर राज्य पर जीत के बाद वहां से इसे लेकर आम्बेर लेकर आए थे। यहां के प्रमुख शिल्प कलाकारों से महिषासुर मर्दन करती माता के रूप में उत्कीर्ण करवाया। इस बारे में जयपुर में एक कहावत भी बहुत प्रचलन में है, सांगानेर को सांगो बाबो, जैपुर को हनुमान, आमेर की शिला देवी लायो राजा मान। शिलादेवी मंदिर में दर्शन के बाद बीच में भैरव मन्दिर बना हुआ है, जहां माता के दर्शन के बाद भक्त भैरव दर्शन करते हैं।
-नाराज हो गई थी माता
माता शिलादेवी को चमत्कारिक के साथ रहस्यमयी भी माना जाता है। लोगों और इतिहास में कई तरह की बातें है। इसमें से एक मत यह भी है कि राजा मानसिंह से स्वप्न में माता ने मंदिर स्थापना के बाद रोज एक नर बलि का भी वचन लिया था। राजा मानसिंह ने इस वचन को निभाया की, लेकिन बाद के शासक इसे निभा नहीं पाए और नर के बजाय पशु बलि देने लगे। इससे भी नाराज होकर शिला देवी की दृष्टि टेढ़ी होने की बात कही जाती है। हालांकि, इतिहासकारों का एक मत यह भी है कि शिलादेवी की प्रतिमा पहले पूर्वाभिमुख थी। महाराजा सवाई जयसिंह के जयपुर नगर की स्थापना किए जाने पर निर्माण में व्यवधान होने लगे। तब तांत्रिकों से पूछा गया तो बताया गया कि शिलामाता की जयपुर की तरफ तिरछी दृष्टि पड़ रही थी। तांत्रिकों व पंडितों ने सवाई जयसिंह को राय दी कि शिलामाता को उत्तराभिमुख प्रतिष्ठित करवाने से ही जयपुर शहर का निर्माण संभव हो सकेगा। सवाई जयसिंह ने प्रतिमा को वर्तमान गर्भगृह में उत्तराभिमुख प्रतिष्ठित करवाया, वहीं कुछ का यह भी मानना है कि प्रारंभ से ही मूर्ति की बनावट ऐसी है, जिसमें माता का मुंह कुछ टेढ़ा नजर आता है।