-ः ललित गर्ग:-
चालीस सालों तक सियासत की दुनिया में जिस अतीक अहमद का सिक्का सबसे खरा था, उसी माफिया अतीक और उसके भाई अशरफ को कैमरे के सामने तीन शूटरों ने मौत के घाट उतार दिया। अशरफ और अतीक के खामोश हो जाने के बाद अब गुड्डू मुस्लिम को लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। गुड्डू मुस्लिम ही अतीक अहमद का पूरा नेटवर्क चलाता था। फिलहाल 5 लाख का इनामी गुड्डू फरार है। पुलिस संरक्षण में होने वाली इस तरह की हत्याओं पर लंबे समय तक सवाल उठते रहेंगे।
प्रयागराज में बसपा विधायक रहे राजूपाल की हत्या के चश्मदीद गवाह उमेश पाल की फरवरी के अंतिम सप्ताह में हत्या कर दी गई। हत्या के बाद पूरे प्रदेश में सियासी माहौल गर्म हो गया। योगी सरकार पर लोग सवाल उठाने लगे थे प्रदेश को माफिया मुक्त करने का दावा खोखला साबित हो रहा है। अतीक जैसे माफिया जेल में होने के बाद भी खुली सड़क पर निर्दोष लोगों की हत्या कर रहे हैं। पुलिस को भी निशाना बनाया जा रहा है। इस घटना में दोष निर्दोष गनर भी हत्या के शिकार हुए। सरकार को बुलडोजर नीति और अपराध मुक्त प्रदेश को लेकर कटघरे में खड़ा किया जाने लगा। इस घटना को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बेहद गंभीरता से लिया। उन्होंने खुद विधानसभा में ऐलान किया कि अपराधियों को मिट्टी में मिला देंगे। जब अतीक जैसे माफिया के खिलाफ सरकार एक्शन मोड में आ गई तो विपक्ष फिर वोट बैंक के डर से धर्म और मजहब की आड़ लेने लगा। उमेशपाल की हत्या पर जो समाजवादी पार्टी घड़ियाली आंसू बहा रहीं थी वहीं अतीक के खिलाफ कार्रवाई पर सियासी राग अलापने लगी।
योगी के एनकाउंटर नीति पर सवाल उठ रहे हैं कि क्या उत्तर प्रदेश में कानून और संविधान को खत्म कर देना चाहिए। संविधान और कानून का क्या मतलब है। फिर अदालत और जज जैसे पद को खत्म कर दिया जाना चाहिए। अपराधियों को सजा देने के लिए अदालत और संविधान है। एनकाउंटर कहीं का इंसाफ नहीं है। ओवैसी ने कहा है कि उत्तर प्रदेश में कानून का एनकाउंटर किया जा रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी एनकाउंटर को फर्जी बताया। ऐसा नहीं होना चाहिए। फिर अतीक ने उमेशपाल की हत्या क्यों करवाई क्या ऐसा होना चाहिए था। अगर नहीं तो ओवैसी क्यों चुप थे।
कानून के शासन की बात करने वाले इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि चार दशक से भी अधिक समय से आपराधिक गतिविधियों में लिप्त अतीक और उसके साथियों के समक्ष कानून के हाथ निष्क्रिय बने हुए थे। कानून के शासन की चिंता करने वाले नेताओं को यह बताना चाहिए कि ऐसा क्यों था? अतीक और अशरफ आतंक के पर्याय बन गए थे तो इसी कारण, क्योंकि उन्हें बेहद निर्लज्जता के साथ हर तरह का राजनीतिक संरक्षण दिया गया। राजनीति अपराधियों को किस तरह संरक्षण देकर उन्हें सभ्य समाज के साथ विधि के शासन के लिए खतरा बनाती है, अतीक इसका उदाहरण था। यह हास्यास्पद है कि आज वे राजनीतिक दल भी कानून के शासन की बात कर रहे हैं, जिन्होंने अतीक के काले कारनामों से परिचित होते हुए भी उसे संरक्षण दिया।
अतीक और उसके भाई को मारने वालों की उनसे क्या दुश्मनी थी अथवा उन्होंने किसके कहने पर उन्हें मारा। प्रयागराज में पुलिस की उपस्थिति और टीवी कैमरों के सामने माफिया सरगना अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की हत्या पुलिस की कार्यप्रणाली और उसकी चैकसी को लेकर अनेकों सवाल खड़ी करती है। गंभीर प्रश्न यह है कि इतने खतरनाक अपराधी को मेडिकल परीक्षण के लिए अस्पताल ले जाते समय मीडिया के समक्ष पेश करने की क्या आवश्यकता थी और वह भी रात के वक्त? पुलिस को इसका भान होना चाहिए था कि अतीक-अशरफ के दुश्मन या फिर उससे प्रताड़ित लोग उसे निशाना बनाने की कोशिश कर सकते हैं? आखिरकार ऐसा ही हुआ। पत्रकार बनकर पहुंचे तीन अपराधियों ने अतीक और उसके भाई को गोलियों से भून दिया और कोई कुछ नहीं कर सका। पुलिस इस हत्या के कारणों की तह तक जाए, बल्कि यह भी है कि अपराधियों की मीडिया के समक्ष नुमाइश करना बंद करे। वास्तव में यह काम देश में कहीं भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसके पहले भी थाना-कचहरी में अपराधियों को ठिकाने लगाया जा चुका है। कोई कितना भी बड़ा अपराधी हो, उसे तय कानूनी प्रक्रिया के तहत ही सजा मिलनी चाहिए। कानून के शासन की रक्षा और प्रतिष्ठा के लिए यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।
अतीक और उसके भाई अशरफ को ऐसी मौत मिलेगी किसी ने सोचा भी नहीं था। अतीक अहमद भी अपनी हत्या की आशंका व्यक्त कर चुका था और साफ-साफ कह रहा था कि इनकी नीयत सही नहीं है, ‘‘मेरी हत्या करवा दी जाएगी।’’ जिस वक्त यह हत्याएं हुईं उस वक्त पुलिस अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ को मेडिकल जांच के लिए अस्पताल ले जा रहे थे। पुलिस के घेरे में जिस तरीके से तीन हमलावरों ने अतीक की कनपटी पर गोली दागी और अशरफ को बेहद नजदीक से गोलियां मारीं और उसके बाद धार्मिक नारेबाजी की, वह हैरान कर देने वाला है। पूरा घटनाक्रम इलैक्ट्रॉनिक चैनलों के कैमरों में कैद हो गया। यद्यपि पुलिस ने तीनों हमलावर लवलेश तिवारी (बांदा), अरुण मौर्य (कासगंज) और सनी (हमीरपुर) को मौके पर गिरफ्तार कर लिया, क्योंकि उन्होंने गोलियां मारने के बाद तुरन्त अपने हाथ खड़े कर दिए थे। अतीक और अशरफ को घेरा डालकर ला रही पुलिस बेबस दिखी। किसी ने भी हमलावरों पर गोली चलाने का कोई प्रयास किया ही नहीं। दो दिन पहले ही अतीक अहमद के बेटे और उसके साथी शूटर गुलाम को उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने झांसी में मुठभेड़ में मार गिराया था। इसी वर्ष 24 फरवरी को हुई उमेशपाल की हत्या के मामले में अब तक 6 अभियुक्तों की मौत हो चुकी है। यद्यपि उत्तर प्रदेश पुलिस का कहना है कि अतीक और अशरफ को मारने आए हमलावर पत्रकार बनकर आए थे, लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस अपनी नाकामी से बच नहीं सकती। समूचे घटनाक्रम पर सवाल तो उठेंगे ही। अगर अपराधियों और बाहुबलियों को खुलेआम सड़कों पर मारा जाता रहेगा, तो फिर कानून और संविधान का खौफ कहां बचेगा। जिस उत्तर प्रदेश पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में यह आश्वासन दिया था कि अतीक अहमद और उसके भाई के पूरे सुरक्षा प्रबंध होंगे, उसका संवैधानिक दायित्व और नैतिकता कहां चली गई। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि पुलिसकर्मी कानून के रक्षक होते हैं और उनसे उम्मीद की जाती है कि वह लोगों की रक्षा करे, न कि उन्हें कांट्रेक्ट किलर की तरह मार दे। हत्या किसी की भी हो दूध का दूध और पानी का पानी होना ही चाहिए।
तीनों हमलावरों का यह कहना भी गले नहीं उतरता कि उन्होंने नाम कमाने के मकसद से यह हत्याएं कीं। दूसरी धारणा यह भी है कि मुख्यमंत्री योगी की छवि को बदनाम करने के लिए पूरी साजिश रची गई हो। कहीं न कहीं यह भी महसूस किया जा रहा है कि जब पुलिस घेरे में हत्याएं हो सकती हैं तो आम जनता कैसे सुरक्षित है। हालांकि लोग यह भी कहते हैं कि जुल्म की इंतहा होती है या अपराध की पराकाष्टा तो कुछ फैसले कुदरत भी लेती है। अतीक और अशरफ की हत्या का अंतिम सच क्या है इसे सामने लाना भी कानूनी दायित्व है। देखना है कि जांच का तार्किक निष्कर्ष क्या निकलता है? क्या यह सही नहीं होता कि कानूनी प्रक्रिया के तहत अतीक और उसके भाई अशरफ को सजा मिलती। अगर ऐसा होता तो लोगों की न्याय व्यवस्था पर आस्था और बढ़ती।