– मृत्युंजय चतुर्वेदी

जयपुर। बहुत पुरानी कहावत तो है ही साथ ही यह इंसान की फितरत है कि उसे दूसरे की थाली में हमेशा घी ज्यादा दिखाई देता है। उसकी साड़ी मेरी साड़ी से सफेद क्यों.. की भावना हर मन मस्तिष्क में समाई रहती है। पेट पालने के लिए की जाने वाली नौकरी में भी यही बात लागू होती है। वैसे कहा तो यही जाता है कि नौकरी और छोकरी ऊपर वाला तय करता है लेकिन जबसे सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट को सरकार ने मंजूर किया है, सरकारी और निजी नौकरियों को लेकर फिर बहस सार्वजनिक हो गई है। यह बहस कहां जाकर थमेगी यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इस बहस को लेकर देश के विख्यात संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट आफ अहमदाबाद ने एक सर्वे किया तो सामने आया कि नौकरी चाहे सरकारी हो या निजी सबकी नजर केवल और केवल अपनी मेहनत के दम पर मिलने वाले मेहनताने पर टिकी है। सर्वे का लब्बो-लुआब यही है कि सरकारी कर्मचारियों के बढ़े हुए वेतन ने हमेशा की तरह निजी क्षेत्र में काम करने वालों की भौहें तो तान दी है लेकिन जिनके लिए सरकार ने हाल ही में अपने ऊपर 1.02 लाख करोड़ का बोझा लादा है वे भी इससे खुश नहीं हैं। इससे साफ  हो रहा है कि ना तो सरकारी नौकरी वाले खुश हैं और ना ही निजी नौकरी वाले। ऐसे में फिर एक कहावत चरितार्थ होती है कि- दुविधा में दोनो पड़े, माया मिली न राम। याने दोनो ही श्रेणी के लोग यह तय ही नहीं कर पा रहे हैं कि वे अपनी जेब में महिने के अंत में जो भारतीय मुद्रा रख कर घर ले जा रहे हैं वे उसके काबिल भी हैं या नहीं। नतीजा वही होता है कि वेतन लेकर दफ्तर से बाहर निकलने पर सरकारी कारिंदे को निजी कारिंदे और निजी कारिंदे को सरकारी कारिंदे की जेब मोटी नजर आती है। इसका सीधा असर इसी दुविधा में फंसे हर उस शख्स पर पड़ रहा है जो काम तो आठ से सोलह घंटे नियमित कर रहा है लेकिन ना उसका तन इसके लिए तैयार है और ना ही मन। वो तो बस खुद को अर्जुन मान कर नौकरी रूपी सारथी याने कृष्ण के इसी उपदेश पर चलता रहता है- कर्मण्येवाधिकारस्ते।

यक्ष प्रश्न ज्यों का त्यों

आखिर किस नौकरी को सही माना जाए यह यक्ष प्रश्न हमेशा की ही तरह गर्दन ताने खड़ा है। अगर हम तथ्यों पर गौर करें तो कुछ माह पहले किया गया आईआईएम अहमदाबाद का सर्वे काफी कुछ कह देता है। सर्वे में सामने आया था कि सन 2009 की मंदी के बाद से ही नौकरीपेशा लोगों में, चाहे वे सरकारी क्षेत्र में हों या निजी क्षेत्र में, असंतोष का स्तर लगातार बढ़ता जा रहा है। इस सर्वे में औसत रूप से यही सामने आया कि निजी क्षेत्र में काम करने वाले लोग खुद को खुश मानव की श्रेणी में नहीं मानते क्योंकि उनकी धारणा रहती है कि देश की आर्थिक उठापठक का तो उन पर असर पड़ता ही है अगर दुनिया में के किसी कोने में अर्थव्यवस्था डांवाडोल होती है तो भी वे प्रभावित होते हैं। उस सर्वे में निजी क्षेत्र के 13 हजार 205 कर्मचारियों से उनके काम और उनके वेतन को लेकर संतुष्टि के बारे में सवाल दागा गया तो उसमें से 44 फीसदी का कहना था कि वे यह मानते हैं कि 2009 के मंदी काल के बाद से निजी कर्मचारी दोयम दर्जे का हो गया है। सर्वे में शामिल इन 13 हजार 205 लोगों में से 10996 पुरूष और 2209 महिला कर्मचारी थी। 2009 से 2013 की अवधि के दौरान आईआईएम के प्रो. बिजू वार्के व पुणे के एक प्रबंध संस्थान की रूपा खोडे ने यह सर्वे कर निजी क्षेत्र के कर्मचारियों से उनके वेतन,नौकरी की सुरक्षा,कर्मचारी कल्याण और सेवा शर्तों के बारे में जानकारी जुटाई थी। दरअसल, नौकरी के लिए ऊहापोह की हालत बनी ही रहती है क्योंकि सही मायने में कौनसा क्षेत्र सही है इसको लेकर आज तक कोई पूर्ण संतुष्टि वाला फॉर्मूला सामने आया ही नहीं है। विशेषज्ञों का मानना है कि सबसे पहले तो हमें यही लक्ष्य तय करना होगा कि हम किस क्षेत्र के लिए सही हैं। उसी के बाद हमें अपने संभावित कदम उठाने होंगे और तय करना होगा कि हम हमारी रोजमर्रा की जिंदगी को किस तरह चलाना चाहते हैं। इसके लिए हमें सभी पहलुओं का अच्छी तरह से आंकलन करना होगा।

भारत में श्रेष्ठ कार्यक्षेत्र

भारत में सरकारी नौकरी को श्रेष्ठ मामने का एक मुख्य कारण है नौकरी में स्थायित्व और सुरक्षा लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि देश में सरकारी नौकरी पाना इतना आसान भी नहीं है। सरकारी नौकरी के पीछे भागने वालों का एक तर्क यह भी होता है कि सेवा अवधि पूरी होने या सेवानिवृति के बाद निजी क्षेत्र के मुकाबले सरकारी क्षेत्र में ज्यादा सुविधाएं होती है। मतलब पेंशन, अनुकंपा नियुक्ति आदि। लेकिन यदि कोई शख्स बेहतर वेतनमान की लालसा रखता है तो इसमें संदेह नहीं कि निजी क्षेत्र में उसको ज्यादा वेतन मिल सकता है। आईआईएम के सर्वे में यह सामने आया है कि सरकारी नौकरी में वेतन बढ़ोतरी ज्यादा नहीं होती। सरकारी नौकरी में न्यूनतम वेतन और अधिकतम वेतन के बीच बड़ा अंतर रहता है जबकि निजी क्षेत्र में ऐसा नही होता। लेकिन हाल ही में सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को मंजूरी देने के बाद सरकारी कर्मचारी के मुकाबले निजी क्षेत्र का कर्मचारी खुद को कमतर महसूस करने लगा है। सर्वे में साफ हो गया है कि नए वेतन आयोग के बाद निजी क्षेत्र के 70 फीसदी कर्मचारियों ने निजी क्षेत्र में काम करने पर अफसोस जताया है वहीं 80 फीसदी का तो यही कहना है कि उन्होने निजी क्षेत्र को चुनकर ही गलती की है।

अस्सी के दशक से बहस

अगर हम सही सही मायने में यह पता लगाने की कोशिश करें कि आखिर निजी और सरकारी नौकरी को लेकर बहस की शुरूआत कब हुई तो हमें 80 के दशक की तरफ अपनी नजरें डालनी होंगी। उस वक्त निजी क्षेत्र में ना तो ज्यादा नौकरियां थी, ना निजी क्षेत्र में नौकरी के लिए मारामारी थी और ना ही लोग निजी नौकरी को ज्यदा तवज्जो देते थे। उस समय तक देश में निजी सेक्टर पनपा भी नहीं था और देश की जीडीपी में उसका योगदान बेहद अल्प था। उस समय एक साधारण पढ़े-लिखे भारतीय परिवार को लिए सार्वजनिक या सरकारी नौकरी ही एक मात्र मुख्य विकल्प थी। सरकार ही उम्मीद की एकमात्र किरण थी और सरकारी नौकरी में सुरक्षा की गारंटी के चलते लोग उसी नौकरी से चिपके भी रहते थे। जैसे ही स्नातक की पढ़ाई पूरी की,तत्काल सरकारी नौकरी की तलाश शुरू हो जाती थी। नौकरी उस शख्स की योग्यता पर टिकी रहती थी। सरकार से जो वेतन, सुविधाएं मिलती थी वह ले ली जाती थी और तय उम्र के बाद नौकरी की अवधि समाप्त हो जाती थी। लेकिन 80 के दशक के बाद इसमें बड़ा बदलाव आया। बदलाव नौकरी को लेकर अवधारणा में भी और नौकरी के अवसरों में भी आया। अस्सी के दशक के बाद बैंकिंग सेक्टर में अपूर्व उछाल आया और तभी नौकरी के नए नए दरवाजे खुले। बैंको की नौकरी सम्मानजनक तो थी ही , साथ ही वेतन भी ऐसा कि कमीज की कालर ऊंची रहे। उस वक्त बैंको में नौकरी के लिए मानों भगदड़ सी मच गई थी। लगभग उसी दशक में देश के तत्कानीन वित्त मंत्री डा. मनमोहन सिंह ने देश में उदारवाद, निजीकरण और वैश्वीकरण की ऐसी खिड़की खोली कि विभिन्न क्षेत्रों में नौकरी के नए अवसर पैदा हो गए। आजादी के बाद भारत में यह सबसे बड़ा बदलाव माना जाता है। तकनीक के क्षेत्र में नया बूम आया। निजी कंपनियों ने बाजार में अपनी जाजमें बिछानी शुरू की और आईटी व संचार क्षेत्र की कंपनियों में नौकरियों की अपार संभावनाएं बनने लगी। ये कंपनियां शानदार वेतन, सुविधाएं लाभ देने लगी तो इस क्षेत्र की तरफ  युवाओं का आकर्षित होना स्वाभाविक था। बस तभी से देश में निजी क्षेत्र ने सरकारी नौकरी के बराबर आ खडे होने की हिमाकत की और यही हिमाकत निजी और सरकारी नौकरी की बहस में ऐसी उलझी कि आज तक जारी है। दरअसल आईटी क्षेत्र में जिस तरह निजी कंपनियों ने आकर धावा बोला उसने लोगों की सरकारी नौकरी के प्रति धारणा को काफी बदल दिया था। निजी क्षेत्रों में लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, नौकरशाही की दखलंदाजी जैसी कोई चीज नहीं थी लिहाजा लोगों का रुझान भी निजी क्षेत्रों की तरफ बढ़ गया था। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जब अर्थव्यवस्था विभिन्न क्षेत्रों के लिए खुल जाती है तो लोगों के सामने नौकरी का अकाल या अभाव नहीं रहता, खास कर बड़े शहरों में। बेहतर वेतन पैकेज,तेजी से विकास निजी क्षेत्र की पहली प्राथमिकता होती है और सरकारी नौकरी में ये दो मुख्य लक्षण गंभीरता से नही खड़े रह पाते लिहाजा निजी नौकरी के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ जाता है।

सरकारी नौकरी का आकर्षण क्यों?

कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के सचिवालय ने चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के लिए विज्ञापन दिया। चौंकाने वाल बात यह सामने आई कि दसवीं पास योग्यता वाले इस पद के लिए स्नाकोत्तरऔर पीएचडी डिग्रीधारियों ने आवेदन कर डाला। इससे पहले ऐसी खबरें आई थी कि सुरक्षा गार्ड की वैकेंसी के लिए बीटेक और एमबीएस डिग्रीधारी नौकरी के लिए आवेदन करने पहुंच गए। क्या इसे सरकारी नौकरी के प्रति आकर्षण कहा जा सकता है ? कुछ समय पहले देश की सबसे बड़ी रिक्रूटमेंट विज्ञापन एजेंसी टीएआई के अध्यक्ष टी मुरलीधरन ने इंजीनियरिंग और एमबीए कर चुके युवाओं से पूछा कि वे किस क्षेत्र में नौकरी करना चाहते हैं। छात्रों ने कहा वे सरकारी नौकरी में जाना चाहते हैं। हां,अगर वे सरकारी नौकरी के अपने प्रयासों में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं तभी वे निजी क्षेत्र की तरफ कदम बढ़ाएंगे लेकिन सरकारी नौकरी के लिए प्रयासरत रहेंगे और जैसे ही मिलेगी, निजी नौकरी छोड़ देंगे। याने मानसिकता तो अब भी सरकारी नौकरी की प्राथमिकता वाली ही है।  सरकारी नौकरी के पीछे भागने की लालसा का एक कारण यह है कि माना जाता है कि इस क्षेत्र की नौकरी में कोई टारगेट नहीं होता, ढेरों लाभ होते हैं और नौकरी को लेकर सुरक्षा सबसे ज्यादा होती है।

हकीकत में दोनो क्षेत्रों में अंतर क्या है

एक अवधारणा है कि सरकारी नौकरी में निजी क्षेत्र के मुकाबले वेतन और मौद्रिक लाभ ज्यादा हैं। जब कोई सरकारी नौकरी में प्रवेश करता है तो निश्चित रूप से उसका वेतन निजी क्षेत्र में प्रवेश के मुकाबले ज्यादा होता है। उदाहरण के तौर पर कुछ समय पहले डाक विभाग ने पोस्टमैन व मेल गार्ड के पदों के लिए आवेदन मांगे जिसमें योग्यता दसवीं और बारहवीं पास थी और वेतन 20 हजार रूपए था। इसके अलावा मेडिकल व अन्य सुविधाएं भी थीं जो निजी क्षेत्र की प्रारंभिक नौकरी से निसंदेह ज्यादा थी। अब हम इसी सरकारी नौकरी के विपरीत असर पर नजर डालते हैं। ज्यों ज्यों वर्ष गुजरते हैं,सरकारी नौकरी पेशा कर्मचारी के वेतन और सुविधा में वो बढ़ोतरी नहीं हो पाती जो निजी क्षेत्र में हो जाती है। निजी क्षेत्र में काम करते हुए एक कर्मचारी पंद्रह सालों में उस कंपनी या फर्म में ऊपर के बड़े पदों पर अपनी काबिलियत से पहुंच सकता है जबकि एक सरकारी कर्मचारी इसी अवधि में या तो वरिष्ठ क्लर्क या सुपरिडेंन्ट पद तक ही पहुंच पाता है और उसका वेतन भी निजी नौकरी करने वाले उसी श्रेणी के कर्मचारी से तीन गुना कम होता है। निजी क्षेत्र में शुरूआत में कर्मचारी को मेहनत करनी पड़ती है लेकिन काम करने पर उसका समय से पहले प्रतिफल भी मिल जाता है। अब एक और अवधारणा पर गौर करें। माना जाता है कि सरकारी नौकरी में सरकार की नीतियों पर ही चलना होता है और वहां ना तो कोई बड़े टार्गेट होते हैं और ना काम का ज्यादा बोझ होता है। काम के बावजूद नौकरी तो बरकरार रहती ही है। लेकिन समय बदल रहा है। सरकार की नीतियां भी बदल रही है। कुछ समय पहले कैबिनेट सचिव ने सभी विभागों के उन कर्मचारियों और अधिकारियों की बैठक बुलाई जिनका काम का रिकार्ड सही नही रहा है। उन्हे साफ शब्दों में कहा गया कि उन्हे अपनी क्षमता दिखानी होगी वरना सरकारी नौकरी में उनके लिए कोई जगह नहीं है। याने अब सरकारों में भी नौकरी के मायने बदल रहे हैं और जो काम से बचने के लिए सरकारी नौकरी को तरजीह देते हैं या दे रहे हैं उनके लिए भी खतरे की घंटी बज गई है।

काम करो मोटा वेतन पाओ

जहां तक निजी क्षेत्र का सवाल है,सरकारी के मुकाबले निजी क्षेत्र में नौकरी पाना ज्यादा आसान है लेकिन दूसरी तरफ  असुरक्षा इस क्षेत्र की सबसे बड़ी कमजोरी भी है। आप जिंदगी भर नौकरी करेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं होती। अगर आप में योग्यता और धैर्य है तो आप निजी क्षेत्र में बरसों टिके रह सकते हैं। इसके अवाला निजी क्षेत्र में जिस तरह नित नई भर्ती प्रक्रियाएं चलती हैं उसके चलते भी कई लोग नौकरी छोड़ कर या तो भाग खड़े होते हैं या मजबूरन उन्हे नौकरी से हाथ धोना पड़ता है। निजी क्षेत्र में अगर टिके रहना है तो पहली गारंटी यही है कि आप समय के साथ दौड़ो। अगर आप निजी नियोक्ता के विचारों और उसके फैसले के अनुसार काम नहीं कर पाए या समय के साथ नहीं चले तो आपका पिछडऩा और बाद में नौकरी से हाथ धोना तय है लेकिन आपने अपनी योग्यता हर मुकाम पर साबित की तो तय है आपको ऊंची तरख्वाह से कोई रोक नहीं सकता। निजी क्षेत्र में नियोक्ता अपने कर्मचारी के चयन के लिए कई प्रक्रियाएं अपनाता है। लिखित परीक्षा के अलावा साक्षात्कार, फिर ग्रुप डिस्कशन, ब्रेन स्ट्रोमिंग और ना जाने कितने फण्डे अपनाता है। और जब कर्मचारी उसमें कामयाब हो जाता है तो फिर  उसकी बल्ले- बल्ले तय है।

सरकारी भी कम नहीं

-अगर सरकारी नौकरी पर निगाहें डाले तो एक बात साफ है कि नौकरी की सुरक्षा इसका सबसे सुखद पहलू है। काम ना करने पर अनुशासनात्मक कार्यवाही, निलंबन जैसे हथियारों के बाद भी सरकारी नौकरी सुरक्षित मानी जाती है। निजी क्षेत्र की तरह इसमें छंटनी का कोई खौफ  नहीं है। कुछ समय पहले मंदी की मार ने निजी क्षेत्र को तो बुरी तरह झकझोर दिया था लेकिन सरकारी क्षेत्र पर उसका कोई असर नहीं देखा गया।

-सरकारी नौकरी में वेतनमान ढांचा इसका दूसरा सकारात्मक पहलू माना जा सकता है। सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद तो कहा जा सकता है कि अब सरकारी नौकरी वालों को निजी क्षेत्र में मिलने वाले मोटी तनख्वाह वालों से खौफ  खत्म कर देना चाहिए।

– कामकाज के घंटे भी सरकारी नौकरी के प्रति आकर्षण पैदा करते हैं। जहां सरकारी नौकरी में आठ घंटे बाद कर्मचारी घर जाने को स्वतंत्र होता है वहीं निजी क्षेत्र में उस पर समय की पाबंदी सबसे सख्त पहरे के समान होती है।

-लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।

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