-जयपुर की राजमाता के गायत्री देवी जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर विशेष लेख
अपने समय में विश्व की सर्वाधिक सुन्दर स्त्रियों में गिनी जाने वाली जयपुर की राजमाता गायत्री देवी (1919-2009) 29 जुलाई, 2009 को इतिहास में विलीन हो गई । सन् 1940 में राजमाता जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह की तीसरी महारानी बनकर जयपुर आई । अपने पैतृक कूचविहार (पश्चिम बंगाल) राज परिवार के विरोध के बावजूद उन दोनों का विवाह हुआ । इसे प्रेम विवाह ही कहा जा सकता है । दोनों की उम्र में केवल आठ वर्ष का अन्तर था । महाराजा विश्व प्रसिद्ध पोलो खिलाड़ी और गायत्री देवी विश्व की 10 सुन्दरियों में से थी । इस अनुपम जोड़ी की सर्वत्र प्रशंसा होती थी । विश्व विख्यात चित्रकार एम.एफ. हुसैन के शब्दों में ”वह सर्वाधिक आकर्षक नारियों में से थी। गायत्री देवी में अजीब प्रकार का मुगल और राजपूताना मिश्रण था।“
इंगलैंड, स्विटजरलैंड और गुरूदेव रविन्द्रनाथ टेगोर द्वारा स्थापित शांतिनिकेतन में शिक्षा प्राप्त राजमाता व तत्कालीन महारानी गायत्री देवी की दूरदर्शिता देखिये, विवाह के केवल तीन वर्ष बाद ही उनके प्रयासों से सन् 1943 में जयपुर में महारानी गायत्री देवी गल्र्स पब्लिक स्कूल की स्थापना कर दी गई । यह स्कूल अभी देश के प्रमुख गल्र्स स्कूलों में से है। इसके बाद सवाई मानसिंह विद्यालय शुरू किया गया जहां सह-शिक्षा की उत्तम व्यवस्था है।
उस समय का राजपूताना तथा रजवाड़े शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पिछड़े हुए थे । स्त्रियों में पर्दे की प्रथा जोरों पर थी। नई महारानी को देखकर महिलाओं में जागृति आई । जयपुर के महारानी काॅलेज की प्राचार्य रही स्व. सावित्री भारतीया के शब्दों में, ”अब तक महारानियों के पर्दे में रहने का रिवाज था, कोई उनकी झलक भी नहीं देख सकता था किन्तु नई आधुनिक महारानी के बारे में लोगों में बड़ी चर्चा थी। वह टेनिस, बेडमिन्टन खेलती, घुड़सवारी करती, पोलो का खेल देखने जाती, उसकी कमेन्ट्री करती और सार्वजनिक समारोह में महाराजा के साथ रहती थी।“
विवाह के बाद सन् 1940 से 2009 तक लगभग 70 वर्ष तक जयपुर से उनका गहरा जुड़ाव रहा । यही कारण है कि गंभीर बीमारी की स्थिति में भी लंदन से जयपुर आकर ही उन्होंने अंतिम सांस ली । एक बार जब जयपुर के न्यूगेट को तुड़वाने का काम शुरू कर दिया गया था तब उन्होंनें देश के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखकर इस कार्य को रूकवाया और शहर के परम्परागत सौन्दर्य को आंच नहीं आने दी । शहर में स्थान -स्थान पर लगे होर्डिंग देखकर के भी उन्हें परेशानी होती थी। वह चाहती थी कि जयपुर का योजनाबद्ध तरीके से विकास हो । उनका जयपुर के लिए प्रेम और नागरिकों के प्रति सहानुभूति व संवेदनशीलता तथा पूर्व राजपरिवार के प्रति लोगों के विश्वास के कारण ही उन्होंनें सन् 1962, 1967 और 1971 में भारी बहुमत से संसद में जयपुर का प्रतिनिधित्व किया । इसमें उनके सौन्दर्य का योगदान भी कम नहीं है। उनको देखने के लिए लोग लालायित रहते थे और जहां भी जाती भीड़ उमड़ पड़ती थी ।
आपातकाल में तिहाड़ जेल की यातनायें भुगतने के बाद और विरोधी पक्ष में रहने के कारण जनता का भी अधिक हित नहीं कर सकी । शायद इसीलिए उन्होंने राजनीति से एक प्रकार से सन्यास ही ले लिया था और अपने आपको सामाजिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक कार्यो तक ही सीमित कर लिया था । वह सवाई मानसिंह बनेवलेंट फंड, महारानी गायत्री देवी गल्र्स पब्लिक स्कूल, सवाई मानसिंह पब्लिक स्कूल, सवाई मानसिंह कला मंदिर और चांद शिल्पशाला आदि संस्थाओं की प्रमुख थी। इनके माध्यम से समाज सेवा कार्यो में लगी रहती थी।
मैनंे स्वयं उनके कार्यालय में पहले रामबाग पैलेस और बाद में राजमहल में काम किया तथा सवाई जयसिंह बनेवलेंट फंड से स्काॅलरशिप प्राप्त कर शिक्षा प्राप्त की। राजपरिवार से मेरे पूर्वजों व मेरी निकटता के कारण ही स्व. महाराजा सवाई मानसिंह की पुण्य तिथि और राजमाता की जन्मतिथि के अवसर पर लेख पत्र पत्रिकाओं के लिए लिखता रहा हूँ। यह दोनों ही तिथियां जून व मई माह में आती है। इस अवधि में राजमाता प्रायः इंग्लैंड में रहती थी। इन लेखों की कतरनें डाक से मैं उन्हें वहां भेजता था। इनका उत्तर मिलता। एक पत्र में उन्होंने लिखा कि जब रामबाग पैलेस जो उनका निवास स्थान था। उसे होटल बनाने का विचार महाराजा सवाई मानसिंह द्वारा किया जा रहा था। इस संबंध में वह स्वयं और भवानी सिंह (महाराजा के उत्तराधिकारी) महाराजा साहेब के पास गये और जानना चाहा कि क्या यह कदम उचित है? महाराजा सवाई मानसिंह तब न तो रियासत के महाराजा थे और न ही राजस्थान के राजप्रमुख। इस स्थिति में महाराजा ने अपनी महारानी और महाराजकुमार को उत्तर दिया कि हमें अब इतने बड़े निवास स्थान की जरूरत नहीं है किन्तु जयपुर को इस प्रकार के शानदार होटल की जरूरत है। राजमाता ने लिखा कि ऐसे विचार थे स्व. महाराजा सवाई मानसिंह के।
राजमाता गायत्री देवी ने जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह द्वितीय से प्रेम विवाह किया और अंत तक उनके प्रेम में सराबोर रही। जयपुर में उपयुक्त स्थान पर लगाने के लिए घोड़े पर सवार मूर्ति बनवाई। दस वर्ष तक यह मूर्ति मूर्तिकार आनंद शर्मा के स्टूडियो में पड़ी रही। राजमाता चाहती थी कि यह मूर्ति जयपुर में रामनिवास बाग के मध्य चैराहे पर लगे किन्तु राज्य सरकार सहमत नहीं थी। अंततः वह दिन भी आया जब राजस्थान दिवस सन् 2005 (30.03.2005) को तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने रामनिवास बाग में स्थापित महाराजा की भव्य मूर्ति का अनावरण किया। संभवतः जीवन के अंतिम वर्षो में यह उनकी सबसे बड़ी लालसा थी जो पूरी हुई। इसके बाद वह अपने आस-पास के लोगों को कहती थी कि अब शायद वह अधिक दिनों तक नहीं रह सकेगी। सन् 2007 में मोती डूंगरी में गिर जाने से उनके पैर की हड्डी में फ्रेक्चर हो गया था, इससे अधिक चलने फिरने की स्थिति में भी नहीं थी।
उनका लाईफ स्टाइल भी राजसी था। पार्टियां करना, मित्रों, रिश्तेदारों से मिलना उचित सलाह देना तथा कार्यालय में बैठकर नियमित रूप से काम करना। एक बार मैंने पूछा कि इस उम्र मंे भी आपके चुस्त दुरूस्त रहने का राज क्या है? राजमाता का उत्तर था ’’मेरा जीवन नियमित है और अपनी संस्थाओं का काम संभालती रहती हूँ।’’ वह बड़ी तुनक मिजाज थी। कभी बहुत प्रसन्न हो जाती और कभी बहुत नाराज। विनम्रता और व्यवहार कुशलता ऐसी कि यदि बिना कारण के नाराज हो जाती तो क्षमा मांगने में भी देरी नहीं करती थी। इसी प्रकार की घटना का जिक्र करते हुए वाईल्ड लाईफ सोसायटी के हर्षवर्धन ने बताया कि एक बार वह मिलने गये तो राजमाता गुस्से में बरस पड़ी। उनके समझ मंे नहीं आया कि यह क्या हुआ और अपने घर लौट आये। थोड़े दिन बाद राजमाता का पत्र मिला। उसमें लिखा था कि उस दिन उनका मूड ठीक नहीं था। इस कारण से गुस्से में जो कुछ कह दिया, उसके लिए क्षमा करें।
उनके कार्य व व्यवहार में राजशाही झलकती थी किन्तु जनसाधारण के दुःख दर्द को भी भली प्रकार से जानती थी और यथा संभव मदद करती थी। अपने मृदु व्यवहार व कुशलता से लोगों को अपना बनाने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। इसीलिए लोगों के दिलों पर राज करती थी। उनके संपर्क में आये लोग जीवन भर उन्हें नहीं भूल सकेंगें। ’’प्रिन्सेस रिमेम्बर्स’’ जैसी पुस्तक से, जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है, राजमाता ने अपने को व अपने पति महाराजा सवाई मानसिंह को अमर कर दिया है। वह जयपुर की ही नहीं किन्तु राजस्थान व भारत की अघोषित राजदूत थी। यह जानकार बड़ी प्रसन्नता है कि राजमाता के जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर मई 2019 से एक वर्ष तक उनकी स्मृति में अनेक कार्यक्रम आयोजित किये जावेंगे। यह कार्यक्रम राजमाता के पौत्र देवराजसिंह और पौत्री लालित्या कुमारी के सौजन्य से आयोजित किये जावेंगे।
-देवी सिंह नरूका
स्वतन्त्र लेखक
एफ-130, रामनगर विस्तार सोडाला,
जयपुर – 302019
मो. नं.: 9314532656