जयपुर. राजधानी जयपुर में करीब 180 साल पहले माणक चौक चौपड़ पर सिरहड्योढ़ी बाजार में स्थापित श्रीरामचंद्रजी मंदिर देश का एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसका नाम भले ही श्री रामचंद्रजी है , लेकिन यहां दर्शन भगवान श्री कृष्ण के होते हैं. देवस्थान विभाग के अधीन राजकीय प्रत्यक्ष प्रभार के इस मंदिर को पूर्व महाराजा सवाई जगतसिंह की महारानी चंद्रावती ने बनवाया था. वैष्णव सम्प्रदाय के इस मंदिर का निर्माण पूर्व जयपुर महाराजा सवाई जगत सिंह की महारानी चन्द्रावती की ओर से 1840 से 1855 के मध्य में करवाया गया था. मंदिर का नामकरण राम चन्द्रावती यानि रामचन्द्रावत किया गया. इसमें राम शब्द महाराजा रामसिंह के नाम से और चन्द्रवती मंदिर बनवाने वाली चन्द्रावती के नाम से लिया गया. लेकिन समय के साथ-साथ मंदिर रामचन्द्रवती जी से अभ्रंश मंदिर रामचन्द्र जी हो गया. लेकिन मंदिर में मूर्ति रामचन्द्र जी की ना होकर कृष्ण और राधाजी की स्थापित है. इतिहासकार सिया शरण लश्करी के अनुसार मंदिर में स्थापना के लिए भगवान श्री कृष्ण का बड़ा विग्रह तैयार करवाया गया था. लेकिन मूर्ति स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा के समय चंद्रावती का स्वर्गवास हो जाने के कारण मूल विग्रह की स्थापना अशुभ मानी गई. बाद में चन्द्रावती की निज सेवा की धातु की छोटी मूर्तियों को मंदिर में विराजमान की गई, जो वर्तमान में मंदिर में विराजमान है. मंदिर का भव्य भवन एक एकड़ क्षेत्रफल में स्थित है. भवन में 9 चौक है. भवन का अग्रभाग जाली/झरोखों से युक्त है, जो जयपुर स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है. मंदिर का सिंहद्वार और गर्भगृह स्थापत्य की दृष्टि से भव्य और दर्शनीय है. किंवदंती है कि महारानी चंद्रावती की इच्छा पर महाराजा जगतसिंह रामचंद्रजी का मंदिर बनवाना चाहते थे. महारानी ने 1840 में मंदिर बनवाना शुरू किया. मंदिर के निर्माण को करीब 15 साल लगे. 1855 में मंदिर बनकर तैयार हुआ. मंदिर का नामकरण रामचंद्रजी का मंदिर रखा गया. लेकिन एक रात महारानी को स्वप्न आया कि इस मंदिर में भगवान श्री कृष्ण विराजमान होना चाहते हैं. चूंकि महारानी श्री कृष्णजी की अनन्य भक्त थीं, तो उन्होंने मंदिर में स्थापित करने के लिए दर्शनीय बड़ा विग्रह बनवाया था.मंदिर को वर्तमान में सेवा पूजा के लिए दिव्य ज्योति संस्थान को 1997 की सुपुर्दगी नीति के तहत इस मंदिर को सुपुर्दगी पर दिया हुआ है. मंदिर दो मंजिला बना हुआ है. फिलहाल जन्माष्टमी महापर्व की तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा है. बताया जाता है कि आजादी से पहले मंदिर की बड़ी मान्यता थी. हालांकि समय के साथ-साथ यहां श्रद्धालुओं की संख्या कम होती चली गई. लेकिन मंदिर का प्राचीन स्वरूप अभी भी बरकरार है. जिसे निहारने के लिए पर्यटक यहां जरूर पहुंचते हैं.

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