नयी दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने आज स्पष्ट किया कि वह किसी मुद्दे से सिर्फ इसलिये खुद को अलग नहीं रखेगा कि इस पर संसद बहस कर रही है। इसकी बजाय वह यह सुनिश्चित करेगा कि जनता के अधिकारों की रक्षा की जाये। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने दो याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की। इन याचिकाओं में उठाये गये सवालों में यह सवाल भी शामिल है कि क्या न्यायिक कार्यवाही में संसदीय समिति के प्रतिवेदनों का सहारा लिया जा सकता है या उनका हवाला दिया जा सकता है।संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति ए के सिकरी, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड और न्यायमूर्ति अशोक भूषण शामिल हैं। संविधान पीठ ने कहा, ‘‘न्यायिक समीक्षा का अधिकार अप्रभावित रहता है। हम सिर्फ इसलिए इससे अपने हाथ परे नहीं रखेंगे कि संसद में इस मुद्दे पर बहस हो रही है। हम नागरिकों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने के लिये कार्यवाही करते रहेंगे। आप यह नहीं कह सकते कि इस मुद्दे पर संसद में विचार हो रहा है अत: इसे नहीं छेडा जाये। नहीं, हम ऐसा नहीं कर सकते।’’ पीठ ने कहा कि शीर्ष अदालत संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने आदेश लागू करा सकती है और आयोग गठित करने, रिपोर्ट मांगने और न्याय के हित में जांच का आदेश दे सकती है। याचिकाओं में कुछ दवा कंपनियों द्वारा कथित रूप से विवादास्पद ह्यूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) वैक्सीन का परीक्षण करने के बारे में संकेत देने संबंधी संसद की स्थाई समिति के 22 दिसंबर, 2014 को जारी 81वें प्रतिवेदन का हवाला देने के बाद यह मामला उठा कि क्या न्यायिक कार्यवाही में संसदीय प्रतिवेदन का सहारा लिया जा सकता है।
इससे पहले, मामले पर सुनवाई शुरू होते ही अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने संसद और उसकी समितियों के विशेषाधिकारों और अलग अलग अधिकारों की अवधारणा का हवाला दिया और कहा कि संसद की किसी भी समिति की किसी भी रिपोर्ट की न्यायिक जांच या समीक्षा नहीं हो सकती है। वेणुगोपाल ने कहा कि अधिकार के बंटवारे को संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा माना गया है। इस पर पीठ ने टिप्पणी की कि लोकतंत्र के संसदीय स्वरूप में सरकार की सामूहिक जिम्मेदारी का सिद्धांत है और सवाल यह है कि इसके लिये हम लाइन कहां खींचे। अधिकार के बंटवारे की तरह ही न्यायिक समीक्षा का अधिकार भी बुनियादी ढांचे का हिस्सा है। ऐसा नहीं है कि न्यायिक समीक्षा का हमारा अधिकार प्रभावित होता है। हम किसी मामले को अपने हाथ में लेकर खुद ही जो जरूरी हो कर सकते हैं। पीठने कहा कि मुद्दा यह है कि क्या एक जनहित याचिका के हलफनामे में संसदीय समिति के प्रतिवेदन का विवरण शामिल किया जा सकता है। इस मामले में आज भी सुनवाई अधूरी रही। अब इस मामले में 31 अक्तूबर को आगे सुनवाई होगी। यह मामला महिलाओं में ग्रीवा के कैंसर की रोकथाम के लिये मेसर्स ग्लैक्सो स्मिथक्लिन एशिया प्रा लि और एमएसडी फार्मास्यूटिकल्स प्रा लि द्वारा निर्मित एचपीवी वैक्सीन को मंजूरी देने के संबंध में औषधि महानियंत्रक ओर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा की गयी कार्रवाईसे जुडे पहलुओं को लेकर 2012 में शीर्ष अदालत में आया था।