– राकेश कुमार शर्मा
जयपुर। इतिहास है, लेकिन भगवान शिवजी का एक ऐसा स्वरूप का भी मंदिर है, जिसके बारे में जयपुरवासी कम ही जानते हैं। वह है भगवान शिवजी का तांत्रिक स्वरूप धारण करने वाले शरभावतार का मंदिर। शरभावतार मंदिर मंगला माता मंदिर के पास शुक्लपुरी में स्थित है। भगवान का यह स्थल देखने में भले ही छोटा व साधारण हो, लेकिन बड़ा चमात्कारिक है। पक्षीराज के नाम से विख्यात शरभावतार भगवान शिवजी का परम तांत्रिक स्वरुप माना ाता है। इसकी उपासना गुप्त व अत्यंत कठिन होने से सिद्ध तांत्रिक भी कतराते हैं। जयपुर के शरभावतार मंदिर की बड़ी महिमा है। हालांकि कम ही लोगों को इस मंदिर और भगवान शिवजी के इस स्वरूप का ज्ञान है। फिर भी बड़ी संख्या में साधक और भक्त नियमित रुप से मंदिर आते हैं। सावन, महाशिवरात्रि और नवरात्रों में विशेष अनुष्ठान के आयोजन होते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि सवाई माधोसिंह प्रथम एक बार शरभावतार मंदिर के सेवक (पुजारी)को अपनी सेना के साथ युद्ध में ले गए। दुश्मनों की सेना जैसे ही दिखाई दी, उन्होंने केवल तंत्र विद्या से ही बिना युद्ध के दुश्मनों को भगा दिया।
पक्षीराज शरभवतार का अनुष्ठान परम शक्तिशाली शत्रु को समूल नष्ट करने की क्षमता रखता है। ब्रहाण्ड की सभी तांत्रिक शक्तियों का समावेश होने के कारण यह सर्वाधिक प्रभावशाली माने जाते हैं। अत्यंत गूढ और भयानक स्वरुप होने के कारण प्राणों पर संकट आने की स्थिति में ही इनका अनुष्ठान किया जाता है। यदि इनके अनुष्ठान में जरा सी भी चूक हो जाए तो साधक को भारी नुकसान होने का अंदेशा रहता है। आकाश भैरव कल्प के दारुण सपाक (शरभ स्त्रोत) नामक हस्तलिखित ग्रंथ में महाप्रतापी पक्षीराज के स्वरूप, मंत्र और अनुष्ठान की जानकारी है कि शत्रु के प्राणों को कु्रद्ध यमदूतों द्वारा बलपूर्वक ले जाने, फरसे जैसी चोंच से टुकटे-टुकडे हुए शत्रु के कालपाश में बंधकर यमलोक चले जाने, कुछ शत्रुओं के गदा की फटकार से उड़ जाने और कुछ मूसल के प्रहार से मारे जाने और पक्षीराज की मुटठी के दृढ प्रहार से शत्रुओं के सिर चकनाचूर हो जाने आदि की कामना करते हुए महाभयंकर शरभजी के शरणागत होने की इच्छा की गई है। पक्षीराज का चित्र ब्रह्मपुरी में चमत्कारेश्वरी माता के मंदिर में मौजूद है। इसके अलावा सिटी पैलेस स्थित राजराजेश्वर शिवालय में भी यह विचित्र स्वरुप रखा हुआ है। यहां के तांत्रिक मानते है कि कु्रद्ध परीक्षाराज के कंठ से भयानक ध्वनि भैरव के बिना नहीं निकल सकती। इसलिए इनके कंठ में भैरव विराजमान रहते हैं। चतुर्भुजी पक्षीराज के बाएं हाथ में सर्प और दाएं हाथ में शक्ति है। अंगुलियों के स्थान उनके गरुड जैसे पंजे है। अति भयंकर और महाक्रोधी पक्षीराज का एक ओर स्वरूप भी है, वे कवच बनकर साधक की रक्षा भी करते हैं।
नरहरि को शांत करने के लिए शिवजी को लेना पड़ा शरभावतार
शिव पुराण में बताया है कि राजा दत्ति के दो पुत्र कनक शिपु व कनकाक्ष उत्पन्न हुए। वे दोनों ही देवताओं के शत्रु थे। कनकाक्ष को तो भगवान विष्णु ने वाराह अवतार लेकर मारा। कनकशिपु के चार पुत्र हुए। इनमें सबसे छोटा प्रहलाद था, जो बड़ा ही सत्यवादी और भगवान विष्णु का परम भक्त था। एक दिन कनकशिपु ने प्रहलाद की हत्या करनी चाही तो भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर उसका वध किया। इसके बाद भी भगवान का क्रोध शांत नहीं हुआ और वे सम्पूर्ण सृष्टि भस्म करने पर उतारु हो गए। भगवान का प्रचंड रुप देकर देवता भी कांपने लगे। भक्त प्रहलाद को भगवान के पास भेजकर शांत करने को कहा, लेकिन प्रहलाद को देखकर भगवान ज्यादा क्रोधित हो उठे। देवताओं ने भगवान शिवजी की शरण लेकर प्रभु विष्णु को शांत करने में सहायता मांगी। देवताओं ने कहा, आपने पहले भी भगवान विष्णु के क्रोध को आपने वीरभद्र के जरिए शांत किया था। इस पर भगवान शिवजी ने अपने गण वीरभद्र को याद किया तो वह तुरंत हाथ जोड़कर हाजिर हो गए। भगवान ने गण से कहा कि नरहरि क्रोधित है। उन्हें विनम्रता से क्रोध शांत का प्रयास करना। यदि वे काबू में नहीं आएं तो शक्ति का प्रदर्शन करना। भगवान का आदेश सुनकर वीरभद्र नरहरि के पास पहुंचे और उनसे प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभु आपने नरहरि का अवतार संसार की रक्षा के लिए लिया है। आप प्रलय करने का उपाय नहीं करें। भगवान शिवजी की भी यहीं आज्ञा है, पर नरहरि नहीं माने और वीरभद्र को वहां से चले जाने को कहा। वे नहीं गए तो नरहरि ओर गुस्से में हो गए। इस पर वीरभद्र ने आग्रह करते हुए कहा कि भगवान शिवजी का अनुरोध ठुकराना उचित नहीं है। जिस समय आपने कमठ का अवतार लिया था, उस समय उन्होंने तुन्हारे सिर को जलाकर अपने हार में पिरो लिया था। जब तुमने वाराह अवतार लिया तब भगवान शिवजी ने ही आप पर काबू पाया और इस सृष्टि को प्रलय से बचाया। नरहरि ने यह सुना तो वे ओर क्रोधित हो उठे और वीरभद्र को पकडऩे का प्रयास किया। इस पर वीरभद्र ने अपना शरीर आकाश में छिपा लिया। गण वीरभद्र की स्थिति देखकर भगवान शिवजी भी अपने अद्भुद रुप में प्रकट हो गए। उनका आधा शरीर सिंह का था, जिसमें दो पंख व चोंच, सहस्त्र भुजाएं, शीश पर जटाएं, मस्तक पर चन्द्रमा और मुंह में भयंकर वज्र के समान दांत थे। उनका यह रुप देखकर देवता भी कांपने लगे और क्रोधित नरहरि भी निस्तेज हो गए। शरभ अवतार धारण किए हुए शिवजी ने बलपूर्वक अपनी भुजाओं में नरहरि को पकड़ लिया और आकाश में उडऩे लगे। तब नरहरि ने अपना रुप त्याग दिया और वे लोप हो गए। देवताओं ने शरभ अवतार शिवजी की पूजा अर्चना की। तब शिवजी ने कहा कि मेरे में और भगवान विष्णु में कोई भेद नहीं है। दोनों का रुप एक ही है। शिवजी ने रुप त्यागने के बाद नरहरि का सिर और चर्म उठा लिया। सिर तो अपनी माला का सुमेरु बनाया और भक्ति के साथ उनका चर्म ओढ़ लिया। फिर अंर्तध्यान हो गए। ऐसा ही स्वरुप जयपुर में शरभावतार मंदिर में विराजित है। भक्त लोग शरभावतार को भगवान शिव जी का तांत्रिक स्वरूप मानते हैं।