– राकेश कुमार शर्मा
जयपुर। उत्तरप्रदेश में चुनाव को लेकर राजनीतिक दलों में घमासान मचा हुआ है। सत्ता पर कब्जा बरकरार रखने के लिए समाजवादी पार्टी ने एडी-चोटी का जोर लगा रखा है तो बसपा ने भी फिर से सत्ता हासिल करने के लिए ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम कार्ड का दांव फेंका है। कांग्रेस ने 78 साल की दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित बतौर सीएम चुनाव में उतारने से हर दल को सकते में डाल दिया है और भाजपा-बसपा के समीकरणों में सेंधमारी कर दी है। इन तीनों पार्टियों में एक समान बात है, वह सीएम पद की घोषणा। बसपा की तरफ से पूर्व मुख्यमंत्री मायावती, सपा ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तो कांग्रेस शीला दीक्षित के नाम पर जनता के बीच मैदान में आ चुकी है। लेकिन लोकसभा में सर्वाधिक 72 सीटें जीतने वाली भाजपा अभी तक सीएम प्रत्याशी की घोषणा पर चुप्पी साध रखी है। जातिगत समीकरणों में उलझी भाजपा यह तय नहीं कर पा रही है वे किसे सीएम घोषित करे, जो सभी जातियों, वर्गों में सर्वमान्य हो और आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी को जीत भी दिला सके। हालांकि सीएम के लिए केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह, केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी, सांसद आदित्यनाथ, वरुण गांधी के नाम प्रमुखता से सामने आ रहे हैं, लेकिन पार्टी एकराय नहीं हो पा रही है। उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित करने को लेकर भले ही अभी बीजेपी में खूब मंथन चल रहा हो, लेकिन यूपी का राजनीतिक इतिहास कुछ और कहता है। जब भी बीजेपी ने किसी चेहरे के साथ चुनाव लडऩे का प्रयास किया तो उसे जीत मिलना तो दूर पिछली बार से भी उसकी सीटें कम हो गईं। यही वजह है कि बीजेपी अब भी यूपी में मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने को लेकर माथापच्ची में जुटी है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में पार्टी की भारी-भरकम टीम इस माथापच्ची के साथ बहुमत के लिए संघर्ष कर रही है। बीजेपी सूत्रों के मुताबिक, बीजेपी को सबसे ज्यादा सीटें भी उसी विधानसभा चुनाव में मिलीं, जब उसने किसी नेता को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया था। यही वजह है कि पार्टी में एक बड़ा वर्ग चाहता है कि राज्य में किसी भी चेहरे के साथ चुनाव न लड़ा जाए। इस वर्ग को यह भी लगता है कि अगर किसी एक का नाम सामने रखा गया तो इसका असर यह भी हो सकता है कि अन्य नेता उतने दिल से राज्य में चुनाव जिताने के लिए जोर भी न लगाएं। ऐसे में राजनीतिक टांग खिंचाई से बचने के लिए यही एक रास्ता है कि सामूहिक नेतृत्व में ही राज्य विधानसभा का चुनाव लड़ा जाए। चुनाव संचालन से जुड़े एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि 1991 में जब पहली बार बीजेपी को बहुमत मिला था, उस वक्त भी बीजेपी ने किसी को मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं किया था। तब पार्टी को 221 सीटों पर जीत हासिल हुई थी और कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया था। इसके बाद 1993 में जब चुनाव हुए तो तो कल्याण सिंह ही मु्ख्यमंत्री थे। इसलिए उन्हें ही सीएम कैंडिडेट मान लिया गया था, लेकिन सीटें कम होकर 177 हो गईं। इसके बाद 1996 में भी फि र कल्याण सिंह ही सीएम कैंडिडेट थे, तब सीटें 174 रह गईं। बाद में जब रामप्रकाश गुप्त को हटाकर राजनाथ सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया और उनका कार्यकाल पूरा होने पर जब 2002 में विधानसभा चुनाव हुए तो उस वक्त भी मुख्यमंत्री होने के नाते राजनाथ सिंह ही सीएम चेहरा थे, लेकिन बीजेपी 88 सीटों पर ही सिमट गई। इसके बाद 2007 में एक बार फि र कल्याण सिंह को सीएम कैंडिडेट घोषित किया गया, लेकिन बीजेपी की सीटें बढऩे की बजाय पिछली बार से भी कम होकर महज 51 सीटें रह गई। पिछले विधानसभा चुनाव में किसी को औपचारिक तौर पर सीएम कैंडिडेट नहीं बनाया गया था, लेकिन उमा भारती को मैदान में उतारा गया। इसलिए मान लिया गया था कि वे सीएम कैंडिडेंट होंगी लेकिन चुनाव में बीजेपी को 47 सीटें ही मिली। जिस तरह से उत्तरप्रदेश की राजनीति में जातिवाद हावी रहता है। उससे भी भाजपा बड़े सोच-समझकर कदम रखना चाहती है। पार्टी हर उस बड़े तबके को जोडऩा चाहती है, जो कभी भाजपा के साथ लेकिन अब डेढ़ दशक से छिटककर दूसरे दलों में चला गया। केशव मौर्य को उत्तरप्रदेश इकाई का अध्यक्ष बनाना भी इसी सोच का नतीजा है। पार्टी फिर से पिछड़े वर्ग को अपनी तरफ लाना चाहती है। इसी तरह बसपा, कांग्रेस व सपा से भी पिछड़े व दलित वर्ग के बड़े नेताओं को भाजपा में शामिल करने का अभियान चलाया हुआ है। संभवतया यहीं वजह है कि पार्टी अभी सीएम प्रत्याशी करने से डर रही है कि अगर किसी एक वर्ग के नेता को आगे बढ़ाया तो दूसरे वर्ग और जाति उससे छिटक सकते है। क्योंकि हर दल ने जाति के हिसाब से अपना वोट बैंक मजबूत किए हुए है। सपा का यादव व मुस्लिम के साथ पिछड़ों में अच्छी पकड़ है। वहीं बसपा का दलित वर्ग के साथ मुस्लिम व सवर्ण समाज में भी पैठ बनाने में लगी हुई। कांग्रेस ने शीला दीक्षित को उतारकर फिर से सवर्ण मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने की मुहिम शुरु कर दी है। ऐसे में भाजपा जो सवर्ण मतदाताओं के भरोसे चल रही थी, यह तय नहीं कर पा रही है कि वह किसे प्रत्याशी बनाए। ऐसे में सीएम पद पर घोषणा की भी गई तो वह चुनावों से कुछ महीने ही की जाएगी, तब तक पार्टी हर वर्ग में पैठ बनाने की जुगत में लगी हुई है, ताकि ज्यादा विरोध नहीं हो सके।
यूपी में प्रियंका को जिम्मेदारी की तैयारी
कांग्रेस इतिहास के सर्वाधिक बुरे दौर से गुजर रही है। राजनीतिक विशेषज्ञ तो यहां तक कह रहे हैं कि अब कोई चमत्कार ही इस पार्टी को बचा सकता है! जाहिर है कांग्रेस में जब चमत्कार की बात की जाए, तो घूम फि रकर निगाहें फिर से ‘नेहरू खानदानÓ पर आकर टिक जाती है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पिछले 15 साल से राजनीति में लगे हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त और एक के बाद दूसरे राज्यों में लगातार हार से उनकी छवि पर असर पड़ा है। ऐसे में कांग्रेसजनों की निगाहें बरबस ही प्रियंका गांधी पर टिक जाती हैं। प्रियंका कांग्रेस का ‘ट्रम्प-कार्डÓ मानी जाती हैं। इसलिए वह ऐरे-गैर मौके पर इसे जाया नहीं करना चाहेंगे। पर सवाल यह भी उठता है कि जब कांग्रेस पार्टी ही मिट्टी में मिल जाएगी, तो ‘ट्रम्प-कार्डÓ बचाकर क्या फ ायदा? भारत के चुनावी माहौल में उत्तर प्रदेश अपना खास स्थान रखता है और आजकल चुनावी माहौल की गर्मी बढ़ाई है देश के सबसे चर्चित चुनावी सलाहकार प्रशांत किशोर ने, जिन्होंने लगातार दो चुनावों में सफ लता हासिल की है और तीसरी बार कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में सत्ता दिलाने की जिम्मेदारी भी उठा ली है। उत्तर प्रदेश में चुनाव अगले साल हैं, लेकिन सभी पार्टियों ने अभी से तैयारी शुरु कर दी है, वो भी पूरे जोर-शोर से। कांग्रेस के वर्तमान चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने भी यूपी में प्रियंका या राहुल गांधी गांधी के नाम का प्रस्ताव कर दोनों को यूपी के चुनाव में सक्रिय करने की मांग कर रहे हैं। जो ख़बरें छनके बाहर आ रही हैं, उसके अनुसार प्रशांत किशोर चाहते हैं कि प्रियंका गांधी को यूपी चुनाव का इंचार्ज बनाया जाए। प्रशांत के सुझाव का बड़ी तादाद में कांग्रेसजन भी समर्थन कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि प्रियंका ही ऐसा चेहरा हैं, जो कांग्रेस की किस्मत बदल सकती हैं। तमाम कांग्रेसी उनमें उनकी दादी ‘इंदिरा गांधीÓ का अक्स भी देखते हैं। कांग्रेसी खुलकर कहते हैं कि ‘उनका राजनीति में आना कांग्रेस के लिए वरदान साबित होगाÓ। कुछ समय पहले इलाहाबाद में कांग्रेसियों द्वारा लगाया गया पोस्टर खूब चर्चा में रहा था, जिसका कंटेंट था, मैया है बीमार, भैया पर पड़ गया भार, प्रियंका को बनाओ उम्मीदवार, पार्टी का करो बेड़ा पार। हालांकि खुद प्रियंका गांधी की राय इन मामलों पर कभी खुलकर नहीं आई है। गौरतलब है कि प्रियंका हर लोकसभा चुनाव में सोनिया और राहुल की भरपूर मदद करती हैं। प्रियंका रायबरेली और अमेठी में सोनिया-राहुल का प्रचार करती हैं, किन्तु अपने हंसमुख और मिलनसार स्वाभाव के चलते प्रियंका जल्दी ही लोगों के साथ रिश्ता जोड़ लेती हैं। पर ऐसा भी नहीं है कि प्रियंका गांधी के यूपी की राजनीति में आने से सब खुश ही हैं, बल्कि कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं को प्रशांत का सुझाव कुछ खास पसंद नहीं आ रहा है। खास कर राहुल गांधी के नाम पर कांग्रेस के महासचिव और यूपी प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री का कहना है कि राहुल और प्रियंका दोनों राष्ट्रीय नेता हैं और उनको सिर्फ यूपी तक सीमित नहीं किया जा सकता है। वहीं जयराम रमेश ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि राहुल गांधी सांसद हैं और पार्टी उपाध्यक्ष हैं। वे आगे कांग्रेस अध्यक्ष भी होंगे। जाहिर है राहुल गांधी को पीएम बनाने का सपना देख रहे लोगों के लिए ये झटका कम नहीं होगा कि पीएम बनते-बनते राहुल बाबा सीएम के लिए मुकाबला करने लगे। वह भी वहां जिस प्रदेश में कांग्रेस कैडर कई दशक पहले दम तोड़ चुका है। हालाँकि राहुल गांधी ने 2007 और 2012 के यूपी चुनाव में अपनी पार्टी के लिए जमकर प्रचार किया था, लेकिन उनका ये प्रचार कुछ काम नहीं आया और कांग्रेस यूपी में कोई करिश्मा नहीं दिखा पाई थी। कांग्रेसियों के लिए मुश्किल सवाल यह भी है कि 2017 के चुनाव में राहुल गांधी को सीएम कैंडिडेट बनाने के बाद भी कामयाबी हासिल नहीं हुई तो फि र प्रधानमंत्री की कुर्सी की दावेदारी तो छोडिए। गांधी परिवार का बचा-खुचा जादू भी ख़त्म होने का संकट उत्पन्न हो जाएगा। ऐसे में उत्तरप्रदेश में सहारा ढूंढ रही कांग्रेस के लिए एक मात्र सहारा प्रियंका गांधी ही दिखती हैं, जिनको कम से कम यूपी चुनाव अभियान का प्रमुख तो बनाया ही जा सकता हैं। राजनीतिक विश्लेषक बेझिझक मानते हैं कि प्रियंका में अभी वह करिश्मा बाकी है कि लगभग ख़त्म हो चुकी कांग्रेस को चचाज़् में ला सकती हैं। इन सबके बावजूद सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस भूमिका के लिए प्रियंका गांधी तैयार भी है या नहीं।