-शास्त्री कोसलेन्द्रदास
मुख्यमंत्री का पद एक हो और दावेदार अनेक तो सत्ताकांक्षियों को संतुष्ट करने का जो तरीका हो सकता है, राजस्थान में भाजपा अभी उन कानाफूसियों के दौर से गुजर रही है। सत्ता के गलियारों में अभी नेतृत्व परिवर्तन के अलावा कोई दूसरी बात नहीं है। इस पर विचार जो लोग कर रहे हैं, वे जो राजनीति के वर्तुल से बाहर हैं।
जनादेश हमेशा एक होता है। उसी तरह हमेशा उसका अर्थ अपने-अपने नजरिए से लगाया जाता रहा है। धौलपुर के उपचुनावी जनादेश में भी यही बात है। भाजपा ने जो अर्थ निकाला, उससे राज्य में मुख्यमंत्री की मजबूती की बातें हो रही है। लोगों का मानना है कि बीजेपी की इस धुआंधार जीत के बाद नरेंद्र मोदी अब प्रदेश में नेतृत्व का क्या करेंगे, कोई नहीं जानता। लोगों को यह जरूर मालूम है कि इस उपचुनाव में जो बीजेपी की हार का सपना देख रहे थे, वे अब न घर के रहेंगे और न घाट के।
यह बात सीधी-सपाट है कि प्रदेश की राजनीति के दो ध्रुव वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत हैं। इन दोनों के अलावा जितने भी छोटे-छोटे क्षत्रप हैं, वे सिर्फ जगह भरने के काम में आ रहे हैं। वे जैसे-तैसे अपनी राजनैतिक पारी खेल रहे हैं। जो मंत्री हैं, उनका भी कमोबेश हाल यही हैं। मुख्यमंत्री जो काम उन्हें कहती हैं, वही वे देख सकेंगे। दिल्ली में तो यही होता आया है। नरेंद्र मोदी ने सबकी आभा को आच्छादित कर रखा है। एक पुराना किस्सा है कि चौधरी चरण सिंह के कार्यकाल में किसी मंत्री को कोई काम नहीं होता था। एक बार उनके मंत्रियों ने थोड़ी हिम्मत की। उनसे कहा कि हमारे पास कोई काम नहीं है। फाइलें भी नहीं आती हैं। चौधरी चरण सिंह ने पूछा कि गाड़ी मिली है/ बंगला मिला है? संतरी मिले हैं? सबने हां में जवाब दिया। फिर उन्होंने फैसले के स्वर में कहा कि मंत्री के लिए इतना सब काफी है।
इसका यह मतलब नहीं है कि राजस्थान में इस बार यही हो रहा है। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने मंत्रियों को विभाग बाँट रखे हैं। पर इतना तो तय ही है कि वसुंधरा राजे महारानी हैं। महारानी से यह धारणा बनती है कि हमेशा वह महल में ही रहती होंगी। आंखें बंद रखती होंगी। उनका अंतर्मन सिर्फ आनंद खोजता होगा। वे किसी से मिलती-जुलती न होंगी।
पर वसुंधरा राजे राजनीति में हैं। जनसेवा लक्ष्य है। वे अपनी आंखें हमेशा खुली रखती हैं। मुख्यमंत्री पद संभालने की उनकी दो पारियां इसका प्रमाण हैं। यदि वे ऐसा न करती तो धौलपुर में जनता ने उन्हें इतना बड़ा जनादेश न दिया होता। जहां वसुंधरा राजे हैं, वहां विवाद का डेरा जरूर होगा क्योंकि वे मुख्यमंत्री हैं। वह शुरू भी है। कुछ उनके अपने मंत्रियों और विधायकों से तो कुछ विपक्षी पार्टियों से। पर विवाद से उन्हें कभी प्रभावित होते नहीं देखा गया है। अवश्य वे दूसरों को प्रभावित करने के लिए अपनी भाव-भंगिमा बदल देती हैं। उनकी एक छवि, जो दूसरों के लिए बनी है वह बिल्कुल अलग है। कुछ उन्हें वात्सल्यमयी तो दूसरे उन्हें खतरनाक मानते हैं।
राजस्थान की भाजपा में उन पर कोई विवाद नहीं है। जो विवाद हैं भी वे आपसी नासमझी के कारण हैं। यदि वसुंधरा राजे चाहती तो उन विवादों को साध सकती थी पर उन्होंने इसके लिए कोई प्रयास नहीं किया। हालांकि उन्हें ये प्रयास करने चाहिए थे। इससे अपने परिवार के भीतर वे और मजबूत होती। घनश्याम तिवाड़ी और नरपत सिंह राजवी उनके रक्षा कवच भी साबित हो सकते थे। यह यक्ष प्रश्न सदा बना रहेगा कि उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी में इन दो दिग्गजों को आखिर क्यों बिसराया? जब गुलाब चंद कटारिया को उन्होंने साधा तो इन दोनों को क्यों अवसर नहीं दिया? संभव है कि जब कभी वे अपनी जीवनी लिखें तो इन रहस्यों पर से पर्दा हटाएँ। तब तक इन्तजार करना होगा। पर इस एक प्रक्रिया के अलावा राजे पार्टी के भीतर विवाद के परे हैं। उन्होंने अपनी सूझबूझ से कई विवादों का अंत किया है। यह बड़ी बात है कि वसुंधरा राजे ने किसी विवाद पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। वैसे वसुंधरा राजे प्रतिक्रियाओं के लिए नहीं जानी-पहचानी जाती हैं। वे शांत रहती हैं। कभी-कभार अशोक गहलोत पर उनके हमले जरूर होते हैं। पर वे बयान किसी नए विवाद को जन्म नहीं देते हैं। धौलपुर की जीत ने उनकी चिंता कम की होगी। वे अब बचे समय में खुलकर काम कर सकेंगी। उन्हें खुलकर काम करने का नया उत्साह मिला है। अभी डेढ़ वर्ष उनके पास है। उन्हें काम करना भी चाहिए। वसुंधरा राजे एक सफल मुख्यमंत्री हैं, जिनका अतीत राजमाता विजया राजे सिंधिया और भैरोंसिंह शेखावत से जुड़ा है। एक मुख्यमंत्री का आकलन उसके कामकाज से होना चाहिए, न कि उनके अतीत से। पर वे अपने अतीत से अपना भविष्य को मजबूत कर लेती है, यह उनकी खासियत है।