-मनीष गोधा
जयपुर। प्रदेश की राजनीति में ऐसे मौके कम ही रहे हैं, जब दोनों प्रमुख दल भाजपा और कांग्रेस लगभग एक जैसी स्थितियों से गुजर रहे हों। दोनों दलों में शीर्ष स्तर पर लगभग एक जैसी खींचतान है और अब जब तीन सीटो के महत्वपूर्ण उपचुनाव सामने हैं तो नजर इसी बात पर है कांग्रेस में पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट और भाजपा में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की अपने-अपने प्रदेश नेतृत्व से “उचित राजनीतिक दूरी“ क्या गुल खिलाएगी?
राजसमंद, सहाड़ा और सुजानगढ़ सीटों पर उपचुनाव की पहला चरण यानी नामांकन का दौर पूरा हो गया है और इस पहले चरण में ही पोस्टर पाॅलिटिक्स और दूसरे तरीकों से कांग्रेस और भाजपा मंे शीर्ष स्तर पर दिख रही फुूट सामने आ गई। हालाकि कांग्रेस ने तीनों प्रत्याशियों की नामांकन रैलियों में सचिन पायलट को साथ रख कर कुछ हद तक अपनी फूट पर पर्दा डालने की कोशिश की, लेकिन इससे पहले विधानसभा में सीटों पर माइक के विवाद में पायलट गुट के नेताओं की जो नाराजगी सामने आई थी, उसने यह स्पष्ट कर दिया कि पिछले वर्ष जुलाई-अगस्त में जो हालात बने थे, उनमें अभी तक कोई खास परिवर्तन नहीं आया है और स्थितियां लगभग ज्यों की त्यों हैं।
कांग्रेस की दृष्टि से इन तीनों सीटों की बात करें तो सचिन पायलट को साथ रखना कांगे्रेस की मजबूरी है। सुजानगढ के दिवंगत विधायक और मंत्री मास्टर भंवरलाल मेघवाल सचिन पायलट के सबसे खास लोगों में थे। सरकार के मंत्रियों में वो अकेले ऐसे थे, जो खुले तौर पर पायलट के करीबी माने जाते थे। ऐसे में इस सीट पर पायलट की सक्रियता पार्टी प्रत्याशी मनोज मेघवाल के लिए बडी ताकत है। उनके लिए पार्टी तो साथ लगेगी ही, क्योंकि पार्टी ने टिकट दिया है, साथ ही पायलट गुट भी सक्रियता से काम करेगा। वहीं राजसमंद और सहाड़ा की बात करें तो दोनों सीटों, विशेषकर राजसमंद में गुर्जर समुदाय का वोट बैंक चुनाव परिणाम को प्रभावित करने की स्थिति में बताया जाता हैै। यही कारण था कि पार्टी ने फरवरी में चित्तौड़गढ़ के मातृकुंडिया में हुए किसान सम्मेलन में भी पायलट को साथ रखा और अभी हुई नामांकन रैलियों में भी पायलट मौजूद रहे और दोनों ही बार पायलट के समर्थन में हुई नारेबाजी ने पार्टी नेतृत्व को दिखा दिया कि पायलट यहां के गुर्जर वोटों को प्रभावित करने की पूरी क्षमता रखते हैं। अब ऐसे में तीनों सीटों पर पायलट का रूख पार्टी के लिए काफी अहम हो गया है।
बात भाजपा की करें तो कांग्रेस ने जहां अंदरूनी “पाॅलिटिकल डिस्टेसिंग“ के बावजूद पायलट को साथ रखा, वहीं भाजपा में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अब तक चुनाव में कहीं नजर नहीं आ रही है। पार्टी के मौजूदा हालात को देखते हुए लगता नहीं कि टिकट तय करते समय उनकी कोई भूमिका रही होगी, क्योंकि कोर कमेटी की तो बैठक तक नहंी हुई। बाद मंे नामंाकन रैलियांें से भी उन्हें पूरी तरह आउट कर दिया गया। पोस्टरों तक में उनका नाम और फोटो नहीं था। ऐसा नहीं है कि राजे की मास अपील नहीं है। वे दो बार मुख्यमंत्री रही हैं और 15 साल तक पार्टी पर एकछत्र राज किया है, इसलिए वे आज भी भीड़ खींचने की ताकत तो रखती ही हैं। हाल में खुद के जन्मदिन पर उन्होंने अपनी इस ताकत का प्रदर्शन भी किया। पार्टी ने स्टार प्रचारकों की सूची में उन्हें शामिल किया है। सीटों के लिहाज से देखा जाए तो सचिन पायलट की तरह वे सीधे तौर पर तो इन सीटों को प्रभावित करती नहीं दिखती हैं, लेकिन सुजानगढ में पार्टी प्रत्याशी खेमाराम मेघवाल उनकी सरकार में मंत्री रह चुके हैं, वहीं सहाडा में रतनलाल जाट उनके समय विधायक रह चुके है। इसी तरह राजसमंद में किरण माहेश्वरी की भी राजे से नजदीकी रही है और उनकी बेटी दीप्ती माहेश्वरी चुनाव मैदान में है। इसके अलावा पूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते और राजसमंद व सहाडा में गुर्जरों की समधन होने के नाते वे पार्टी के लिए उपयोगी साबित हो सकती हैं। लेकिन अब पायलट और राजे दोनों के ही मामले में यक्ष प्रश्न यही है कि ये दोनों खुद कितना सक्रिय होना चाहते हैं और इनकी पार्टियां इन्हें कितना सक्रिय होते देखना चाहती हैं?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।)